जेठः २४८पः १७ः
ज्ञान कला जिसके घट जागी.....
ते जगमांही सहज वैरागी.......
ज्ञानी मगन विषयसुखमांही......
–यह विपरीत संभवे नांही....
जेना घटमां ज्ञानकळा जागी, जेना अंतरमां चैतन्यना आनंदनुं वेदन थयुं, ते धर्मात्मा पछी
इन्द्रियविषयोना सुखमां मग्न रहे एवी विपरीत वात कदी संभवती नथी; चैतन्यना आनंदनो अनुभव थतां
ज बाह्यविषयो प्रत्ये सहज वैराग्य थई जाय छे, केमके परिणतिनो वेग अंतर तरफ वळी गयो छे एटले बाह्य
विषयो तरफथी ते संकोचावा लागी छे. ज्ञानीनी आवी सहज अंर्तपरिणतिने अज्ञानीओ बहारथी ओळखी
शकता नथी. समयसारमां कहे छे के–
सम्यगूदष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः।
सम्यग्द्रष्टिने नियमथी ज्ञान–वैराग्यनी शक्ति होय छे; केमके स्व–परनो भेद जाणीने, स्वरूपमां रहेवा
माटे ते स्वरूप तरफ झूकतो जाय छे, ने परथी तथा रागथी विरमतो जाय छे. ज्यारथी सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी
ज आवी दशा थई जाय छे, तो पछी मुनि थया पछीनी तो वात ज शुं?–ए तो निजस्वरूपमां घणा करी गया
छे, ने एमने परभाव घणा छूटी गया छे; मात्र संज्वलननो अतिअल्प राग बाकी रह्यो छे, एने छेदतां ज
केवळज्ञान पामशे
भान करीने....भावना करो
अहो जीवो! आवी शरम शांत मुनिदशाने ओळखीने तेनी भावना तो करो. जे रागथी धर्म माने छे
तेनी तो भावना ज खोटी छे, तेने वीतरागतानी खरी भावना नथी पण रागनी ज भावना छे, एटले
मुनिदशानी खरी भावना तेने होती नथी. ज्यां साची भावना पण न होय त्यां ए मुनिदशा तो होय ज क्य
ांथी? मुनिदशानी के केवळज्ञान वगेरेनी साची भावना सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. सम्यग्द्रष्टि जीव भगवाननो
दास होईने जगतथी उदास छे, अंतरनी चैतन्यलक्ष्मीना लक्षवाळो ते जगत पासे अजाचक छे, जगत पासेथी
मारे कांई जोईतुं नथी, मारुं सर्वस्व मारा अंतरमां ज छे–आवा भानपूर्वक ते पोताना निजस्वरूपने साधे छे.
जे कोई जीवो मोक्ष पाम्या तेओ पोताना निजस्वरूपने साधी साधीने ज मोक्ष पाम्या छे, माटे सौए
निजस्वरूपनुं भान करीने तेनी ज भावना करवा जेवी छे.
* केवळज्ञान–कल्याणकनुं प्रवचन*
वैशाख सुद १२
आजे सवारमां भगवान आदिनाथ प्रभुनी दीक्षानो प्रसंग थयो. दीक्षा पछी चैतन्य आनंदमां लीनता
करीने भगवान केवळज्ञान प्रगट करीने सर्वज्ञ परमात्मा थया. ते सर्वज्ञ परमात्मानुं ज्ञान विषयोनी प्रतिबद्धता
वगर सर्वने प्रत्यक्ष जाणनारुं छे. पूर्वे आत्मज्ञान सहित साधकदशामां पूर्ण स्वभावने साधवानो विकल्प हतो
त्यारे तेना निमित्ते पुण्य बंधायेला, तीर्थंकर प्रकृति बंधायेली, ने हवे केवळज्ञान थतां ते प्रकृतिनो उदय आव्यो
ने दिव्यध्वनि छूटयो. ते दिव्य– ध्वनिमां भगवाने शुं उपदेश आप्यो तेनी आ वात छे.
दिव्यध्वनिमां भगवाननो उपदेश
भगवाने स्वभावसन्मुख थईने अने परनी उपेक्षा करीने आत्माना परमात्मपदने साध्युं, ने वाणीमां
पण परनी ऊपेक्षा करीने स्वभावसन्मुख थवानुं ज आव्युं. आ जगतमां नव तत्त्वो छे; जीवतत्त्व ज्ञान स्वरूप
छे; ज्ञानरहित एवा पांच प्रकारना अजीवतत्त्वो छे; शुभरागादिनी लागणी ते पुण्यतत्त्व छे, हिंसादिनी लागणी
ते पापतत्त्व छे; जेना निमित्ते कर्मो आवे अने बंधाय एवा मिथ्यात्वादि भावो ते आस्रव तथा बंध तत्त्व छे.
आत्माना स्वभावनी सन्मुख थतां निर्मळपर्याय प्रगटे ने कर्मो तथा मिथ्यात्वादि भावो अटके ते संवरतत्त्व छे;
शुद्धतानी वृद्धि थती जाय ने अशुद्धता तथा कर्मो झरता जाय ते निर्जरातत्त्व छे; अने संवर–निर्जरावडे संपूर्ण
कर्मोथी मुक्त थईने पूर्ण ज्ञानानंददशा प्रगटी जाय ते मोक्षतत्त्व छे.