Atmadharma magazine - Ank 188
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १८ः आत्मधर्मः १८८
जगतमां आवा नवतत्त्वो छे, ते भगवाने प्रत्यक्ष जाणीने जेम छे तेम कह्या छे.
भगवाननी वाणी सहज, इच्छा विना, एक साथे बधा रहस्य लेती प्रगटे छे. साधारण मनुष्योनी माफक
भगवान क्रमेक्रमे शब्दो बोलता नथी पण ॐकाररूप निरक्षरी ध्वनि छूटे छे, ने साधारण मनुष्यनी माफक
भगवानना होठ चालता नथी, पण सर्वांगथी निरक्षर ध्वनिना नाद ऊठे छे, जाणे मेघगर्जना थती होय–एम
अति मधुरवाणी छूटे छे.
दरेक आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात भरी छे, तेने भूलीने अज्ञानथी संसारपरिभ्रमणमां अनंतकाळ
वीताव्यो, परंतु अंतरमां भान करीने परमात्मपद साधता कांई अनंतकाळ नथी लागतो, साधक तो असंख्य
समयना काळमां ज परमात्मपदने साधी ल्ये छे. परमात्माना चरणोमां ईंद्रो पण अति भक्तिथी नमी जाय छे;
धन्य नाथ! आपनी आ चैतन्यऋद्धि! आपनी चैतन्यऋद्धि पासे अमारी ईंद्रपदनी ऋद्धिने अमे तुच्छ तरणां
जेवी समजीए छीए. धर्मराजा तीर्थंकर भगवाननी दिव्यध्वनि झीलीने धर्मवजीर गणधरदेवे जे अंगपूर्वरूप
शास्त्रो रच्यां, तेमां ‘ज्ञानप्रवाद’ नामनुं पांचमुं पूर्व छे, तेमांथी कुंदकुंदाचार्यदेवे आ समयसारनी रचना करी छे.
भगवाने कहेली ने पोते अनुभवेली भेदज्ञाननी वात आचार्यदेव कहे छे.
भगवाने दिव्यध्वनिमां जे कह्युं ने पोते अंतरमां अनुभव्युं ते ज आचार्यदेवे आ समयसारमां कह्युं छे.
तेमां आचार्य भगवान कहे छे केः हुं ज्ञायक स्वभाव छुं, रागादिभावो ते मारा स्वभावथी भिन्न छे, ते मने
शरण नथी–आवुं भेदज्ञान ज्यारे करे त्यारे जीव ज्ञानी थाय छे एटले के त्यारथी धर्मनी शरूआत थाय छे;
आवा भेदज्ञान वगर कदी धर्मनी शरूआत थती नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव अने रागादि परभाव ए बंनेनुं
यथार्थ भेदज्ञान थतावेंत ज आत्मा रागादि परभावोथी निवृत्त थईने, पोताना ज्ञानस्वभावमां प्रवृत थाय छे.
खरेखर तो ज्यारे अंतर्मुख थईने ज्ञानस्वभावमां एकत्वपणे परिणम्यो त्यारे ज राग अने आत्मानुं भेदज्ञान
थयुं. भेदज्ञान थवाना काळे ‘आ आत्मा छे ने आ राग छे’ एम कांई बंनेनुं लक्ष नथी होतुं; ते काळे तो
उपयोगने अंतरमां वाळीने ज्ञानस्वभावमां एकत्वपणे परिणमे छे, अने रागमां एकत्वरूपे नथी परिणमतो.
आ रीते अंतर्मुख उपयोगवडे आत्मा अने रागनुं भेदज्ञान प्रगटे छे.
उपयोगने अंतर्मुख केम करवो?
चैतन्य स्वभावनो तीव्र प्रेम (रुचि) जागे एटले उपयोग ते तरफ वळ्‌या वगर रहे ज नहीं. प्रथम
गुरुगमे चैतन्यस्वभाव सांभळीने तेना अतिशय बहुमानपूर्वक खरेखरा प्रेमथी तेनो वारंवार अभ्यास
करवाथी उपयोग ते तरफ वळे छे. जेने चैतन्यस्वभावनो खरेखरो प्रेम जागे तेनो उपयोग तेमां वळ्‌या वगर
रहे ज नहीं. जेने चैतन्यनो साचो महिमा अने रुचि जागे तेनी परिणतिने चैतन्यथी विरुद्ध एवा परभावोमां
चेन पडे ज नहि, एटले त्यांथी परिणति पाछी वळीने अंतरस्वभावमां वळ्‌ये ज छूटको. अने ते माटे अपूर्व
रुचिपूर्वक तेनो सतत प्रयत्न चालता होय छे.
भगवानना उपदेशनो सार
उपयोगने अंर्तस्वभावमां वाळवो ते ज भगवानना उपदेशनो सार छे. चैतन्यस्वभावमां उपयोगने
जोडवाथी ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगटे छे, अने ए ज भगवाननो उपदेश छे.
(वैशाख सुद १३)
‘जिनप्रतिमा जिन सारखी’
आजे सवारे कैलासपर्वत उपर आदिनाथ भगवान मोक्ष पधार्या, ने देवोए भगवाननो निर्वाण
कल्याणक ऊजव्यो. आ रीते भगवानना पंचकल्याण पूर्ण थया अने भगवाननी जिनमंदिरमां प्रतिष्ठा थई.
तीर्थंकर भगवानना पंचकल्याणक ईंद्रो ऊजवे छे, ए साक्षात् पंचकल्याणकनी तो शी वात! अहीं तो
स्थापना तरीके पंचकल्याणक थाय छे. जुओ, साक्षात् भगवानने जे ओळखे तेने भगवाननी स्थापना प्रत्ये
पण बहुमान आवे छे. शास्त्रमां जिनप्रतिमाने जिन सारखी कीधी छेः