भगवानना होठ चालता नथी, पण सर्वांगथी निरक्षर ध्वनिना नाद ऊठे छे, जाणे मेघगर्जना थती होय–एम
अति मधुरवाणी छूटे छे.
समयना काळमां ज परमात्मपदने साधी ल्ये छे. परमात्माना चरणोमां ईंद्रो पण अति भक्तिथी नमी जाय छे;
धन्य नाथ! आपनी आ चैतन्यऋद्धि! आपनी चैतन्यऋद्धि पासे अमारी ईंद्रपदनी ऋद्धिने अमे तुच्छ तरणां
जेवी समजीए छीए. धर्मराजा तीर्थंकर भगवाननी दिव्यध्वनि झीलीने धर्मवजीर गणधरदेवे जे अंगपूर्वरूप
शास्त्रो रच्यां, तेमां ‘ज्ञानप्रवाद’ नामनुं पांचमुं पूर्व छे, तेमांथी कुंदकुंदाचार्यदेवे आ समयसारनी रचना करी छे.
भगवाने दिव्यध्वनिमां जे कह्युं ने पोते अंतरमां अनुभव्युं ते ज आचार्यदेवे आ समयसारमां कह्युं छे.
शरण नथी–आवुं भेदज्ञान ज्यारे करे त्यारे जीव ज्ञानी थाय छे एटले के त्यारथी धर्मनी शरूआत थाय छे;
आवा भेदज्ञान वगर कदी धर्मनी शरूआत थती नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव अने रागादि परभाव ए बंनेनुं
यथार्थ भेदज्ञान थतावेंत ज आत्मा रागादि परभावोथी निवृत्त थईने, पोताना ज्ञानस्वभावमां प्रवृत थाय छे.
खरेखर तो ज्यारे अंतर्मुख थईने ज्ञानस्वभावमां एकत्वपणे परिणम्यो त्यारे ज राग अने आत्मानुं भेदज्ञान
थयुं. भेदज्ञान थवाना काळे ‘आ आत्मा छे ने आ राग छे’ एम कांई बंनेनुं लक्ष नथी होतुं; ते काळे तो
उपयोगने अंतरमां वाळीने ज्ञानस्वभावमां एकत्वपणे परिणमे छे, अने रागमां एकत्वरूपे नथी परिणमतो.
आ रीते अंतर्मुख उपयोगवडे आत्मा अने रागनुं भेदज्ञान प्रगटे छे.
चैतन्य स्वभावनो तीव्र प्रेम (रुचि) जागे एटले उपयोग ते तरफ वळ्या वगर रहे ज नहीं. प्रथम
करवाथी उपयोग ते तरफ वळे छे. जेने चैतन्यस्वभावनो खरेखरो प्रेम जागे तेनो उपयोग तेमां वळ्या वगर
रहे ज नहीं. जेने चैतन्यनो साचो महिमा अने रुचि जागे तेनी परिणतिने चैतन्यथी विरुद्ध एवा परभावोमां
चेन पडे ज नहि, एटले त्यांथी परिणति पाछी वळीने अंतरस्वभावमां वळ्ये ज छूटको. अने ते माटे अपूर्व
रुचिपूर्वक तेनो सतत प्रयत्न चालता होय छे.
उपयोगने अंर्तस्वभावमां वाळवो ते ज भगवानना उपदेशनो सार छे. चैतन्यस्वभावमां उपयोगने
‘जिनप्रतिमा जिन सारखी’
आजे सवारे कैलासपर्वत उपर आदिनाथ भगवान मोक्ष पधार्या, ने देवोए भगवाननो निर्वाण
पण बहुमान आवे छे. शास्त्रमां जिनप्रतिमाने जिन सारखी कीधी छेः