जेठः २४८पः १९ः
कहत बनारसी अलप भवथिति जाकी,
सोइ जिनप्रीतमा प्रमाणें जिनसारखी
एकला प्रतिमानी वात नथी परंतु प्रतिमामां जेमनुं स्थापन छे एवा सर्वज्ञ भगवानना स्वरूपने
वास्तविकपणे जे ओळखे तेनी भवस्थिति अल्प ज होय. ‘जिनसारखी’ एम कह्युं छे एटले साक्षात् जिनदेव
सर्वज्ञपरमात्मा केवा होय तेनुं जेने लक्ष होय–ओळखाण होय, ते ज जिनप्रतिमाने जोतां एवुं स्मरण करी शके
के ‘अहो! जिनेन्द्र भगवान आव होय.’–आ रीते जिनप्रतिमा उपरथी स्मरण करीने जिनदेवनुं यथार्थ स्वरूप
चिंतवतां आत्मानुं शुद्ध स्वरूप लक्षमां आवे छे, अने ए रीते शुद्ध स्वरूपने लक्षमां लेनार जीवने झाझा भव
होता नथी. अने ए रीते शुद्धस्वरूपना लक्ष वगर एकला जिनबिंब वगेरेना दर्शनथी पुण्य बंधाय परंतु
भवस्थिति न घटे.
धर्मीना अंतरमां सिद्धोनी स्थापना
धर्मी जीवे पोताना आत्मामां सिद्धभगवानने स्थाप्या छे, जेवा सिद्धभगवान, तेवो ज परमार्थे मारो
आत्मा–एम प्रतीत करीने आत्मामां सिद्धपणुं स्थाप्युं छे; आत्मामां सिद्धोने स्थापीने सिद्धिना पंथनी शरूआत
करी छे, हवे अल्पकाळमां ते पोते ज सिद्ध परमात्मा थई जशे.
आत्मामां अरिहंतने स्थापे ते अरिहंत थाय
जुओ, आ लींबडीना जिनमंदिरमां पार्श्वनाथ वगेरे भगवंतोनी स्थापनाना प्रसंगे आत्मामां
सिद्धभगवंतोनी स्थापनानी पण वात आवी. ‘विकार जेटलो ज हुं’ एम मानीने अनादिकाळथी
आत्मामां विकारनी प्रतिष्ठा करी हती. तेने बदले विकारथी भिन्न आत्मस्वभावने जाणीने, विकार
भावोनी आत्मामां प्रतिष्ठा न करतां, ‘सिद्धसमान सदा पद मेरो’ एम आत्मामां सिद्ध भगवाननी
प्रतिष्ठा करवी. श्री अरिहंत भगवाने पण ‘विकार ते हुं नहि, अखंड चैतन्य स्वभाव ते हुं’ एवा
ज्ञानद्वारा पोताना आत्मामां चैतन्य स्वभावनी प्रतिष्ठा करी ने पछी तेमां लीनताथी रागद्वेषने टाळीने
तेओ सर्वज्ञ अरिहंत थया. तेमनी आ स्थापना थई. खरेखर अरिहंत भगवाननी स्थापना करनारे
पोताना आत्मामां अरिहंत भगवान जेवा भावने स्थापवा जोईए, अने तेमनाथी विरुद्धभावने
आत्मामां स्थापवा न जोईए. आवा भावथी जे जीव पोताना आत्मामां अरिहंत भगवानने स्थापे छे
ते पोते पण अल्पकाळमां अरिहंत बनी जाय छे.
वाह, साधक संतोनी दशा!
अहो, आत्मशक्तिना साधक संतोनी दशा
अद्भुत होय छे. साधक ज्ञानी पोतानी अनंत
चैतन्यशक्तिनो बादशाह छे. जगतनी तेने दरकार
नथी, केमके जगत पासेथी कांई लेवुं नथी.
भगवानना दास.....ने जगतथी उदास.....एवा
समकिती संतो सदाय सुखीया छे......अंर्तलक्षे
पोताना आत्मिक आनंदने अनुभवे छे. ज्ञान–
आनंदरूपे परिणमतो–परिणमतो कंकुंवरणे पगले
केवळज्ञान लेवा माटे साधक चाल्यो जाय छे......
साधक संतोनी आवी दशा बहारथी कल्पी
शकाय एवी नथी........एनी वास्तिविक
ओळखाणमां पण अपूर्व आत्मार्थिता छे.