आत्मधर्म
वर्ष सोळमुं संपादक जेठ
अंक ८ मो रामजी माणेकचंद दोशी २४८प
आत्माने राजी
करवानी धगश
जगतना जीवोए दुनिया राजी केम थाय अने
दुनियाने गमतुं केम थाय–एवुं तो अनंतवार कर्युं छे
पण हुं आत्मा वास्तविक रीते राजी थाउं ने मारा
आत्माने खरेखर गमतुं शुं छे–एनो कोई वार विचार
पण नथी कर्यो, एनी कोई वार दरकार पण नथी करी.
जेने आत्माने खरेखर राजी करवानी धगश जागी ते
आत्माने राजी कर्ये ज छूटको करशे अने तेने ‘राजी’
एटले आनंदधाम’ मां पहोंच्ये ज छूटको छे. अहीं
जगतना जीवोने राजी करवानी वात नथी, पण जे
पोतानुं हित चाहतो होय तेणे शुं करवुं तेनी वात छे.
पोते स्वभाव ज्ञान–आनंदथी भरेलो छे तेनी श्रद्धा करे
तो तेमांथी कल्याण थाय, ते सिवाय बीजेथी कल्याण
त्रण काळ त्रण लोकमां थाय ज नहीं.
जीवोने आ वात मोंघी पडे एटले बीजो रस्तो
लेवाथी धर्म थई जशे!–एम तेने ऊंधुं शल्य पेठुं छे. पण
भाई! अनंत वरस सुधी तुं बहारमां जोया कर तो पण
आत्मधर्म न प्रगटे. माटे परनो आश्रय छोडीने
स्वतत्त्वनी रुचि करवी...प्रेम करवो...मनन करवुं ते ज
सत् स्वभावने प्रगटाववानो उपाय छे. माटे जे पोतानुं
हित चाहे ते आवुं करो–एम आचार्यदेव कहे छे. जेने
पोतानुं हित करवु्रं होय तेने आवी गरज थशे.
अज्ञानी जीवोनी बाह्यद्रष्टि होवाथी ते एम माने
छे के हुं परनो आश्रय लउं धर्म थाय; पण ज्ञानी कहे छे
के हे भाई! ते बधानो आश्रय छोडीने तुं अंतरमां तारा
आत्मानी श्रद्धा कर, आत्माने प्रगटाववानो आधार
अंतरमां छे. आत्मानी पवित्रता अने आत्मानो आनंद
ते आत्मामांथी ज प्रगटे छे, बहारथी कोई काळे पण
प्रगटतो नथी.
(–पू. बेनश्रीबेन लिखित
समयसार–प्रवचनोमांथी)