Atmadharma magazine - Ank 189
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः १८९
‘आनंदस्वरूपमां एक वार डूबकी मार’
डुंगरगढमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन
(ता. ८–४–प९)
(डुंगरगढना शेठश्री भागचंदजी साहेब वगेरेनी खास आग्रहभरी
विनंतिथी पू. गुरुदेव डुंगरगढ पधार्या हता. ते प्रसंगनुं प्रवचन)
आ पद्मनंदपचीसी शास्त्र पद्मनंदी नामना दिगंबर वनवासी संते रच्युंं छे, आत्मामां आनंदनी
भरतीमां झूलतां झूलतां तेमणे आ शास्त्र रच्युं छे. जेम दरियामां भरती आवे छे ते बहारना वरसादथी के
नदीना पाणीथी आवती नथी पण दरियो पोते ऊछळीने भरती आवे छे; तेम ज्ञान ने आनंदनो समुद्र
भगवान आत्मा पोते अंतर्मुख थतां स्वानुभवथी तेनामां आनंदनी भरती आवे छे, बहारना कोई साधनथी
के रागथी आनंदनी भरती आवती नथी.
आ चैतन्यज्योति आत्मा तन–मन–वचनथी भिन्न छे, तेनो अनुभव तन–मन–वचनथी थतो नथी,
पण अंतर्मुख थईने स्वानुभवथी ज ते जणाय छे, एटले के ते स्वानुभवगम्य छे.
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे केः अहा, दरेक जीव सर्वज्ञस्वभावी छे; पण पोते पोताना सर्वज्ञ
स्वभावने भूलीने पोताने पामर–अल्पज्ञ मानी लीधो छे तेथी संसारमां रखडे छे. सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीत–
ज्ञान–अनुभव वगर, मात्र राग जेटलो मानीने जीवे अनंतवार शुभ भावथी व्रत–तप कर्या छे, पण
आत्मज्ञानना अभावने लीधे तेना संसारभ्रमणनो आरो नथी आव्यो. आत्मज्ञान अनंतकाळमां पूर्वे एक क्षण
पण जीवे नथी कर्युं. तेथी कहे छे के–
मुनिव्रतधार अनंत बार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो।।
छहढाळा
आत्मज्ञान पूर्वे अनंतकाळमां जीवे कर्युं नथी; छतां जे जीव पात्र थईने आत्मज्ञान करवा मांगे तेने क्षण
मात्रमां थाय छे; आठ वर्षना बाळकने के सिंह वगेरे तिर्यंचने पण आत्मज्ञान थाय छे, अरे! नरकनी अनंती
प्रतिकूळता वच्चे पडेला जीवोने पण आत्मज्ञान थई शके छे. अत्यारे विदेहक्षेत्रमां सीमंधरादि २० तीर्थंकर
भगवंतो साक्षात् बिराजे छे, तेमनी धर्मसभामां आठ आठ वर्षना राजकुमारो, सिंह, वाघ वगेरे अनेक जीवो
आत्मज्ञान पामे छे.
ते आत्मज्ञाननुं साधन शुं? शुं भगवाननी वाणी तेनुं साधन छे? ना; खरेखर भगवाननी वाणी तेनुं
साधन नथी, जो ते साधन होय तो तो वाणी सांभळनारा बधाने आत्मज्ञान थई जवुं जोईए. आत्मज्ञाननुं
खरुं साधन पोतानो आत्मा ज छे; जेणे अंतर्मुख थईने आत्मानुं अवलंबन लीधुं तेणे पोताना आत्माने ज
पोताना सम्यग्ज्ञाननुं साधन बनाव्युं.
आ चिदानंदस्वरूप आत्मा छे ते अरूपी छे, ने वचन तो रूपी छे; ते रूपी–वचनो अरूपी आत्माने
स्पर्शता पण नथी; तेथी ते वचनना अवलंबने आत्मा अनुभवमां