Atmadharma magazine - Ank 189
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ४ः आत्मधर्मः १८९
(७)
(नियमसार गा. ११–१२ चालु)
‘स्वरूप – प्रत्यक्ष’ ज्ञान दरेक जीवमां रहेलुं
छे अने ते केवळज्ञानुं मूळ छे; केवळज्ञान थया
पहेलां पण समकितीने तेनी प्रतीत थई गई
छे. आने ‘स्वरूप – प्रत्यक्ष’ कहेवाय एवा
नामनी खबर कदाच समकितीने भले न होय,
पण अंतर्मुख वेदन थईने जे प्रतीति तेने थई
तेमां आ स्वरूप – प्रत्यक्षनी प्रतीत पण भेगी
आवी ज गई छे. आ स्वरूप – प्रत्यक्षज्ञान
आत्माथी कांई जाुदुं नथी पण ते आत्मानो
स्वभाव ज छे, एटले आत्मस्वभावनी
प्रतीतमां ते पण आवी ज जाय छे. अने
स्वभावना अवलंबने जे निर्मळ पर्याय प्रगटी
त पण स्वभव सथ अभद थई गई छ,
एटले ते सम्यग्दर्शना विषयथी जाुदी नथी
रहेती.
ज्ञानना प्रकारोमां कयुं ज्ञान कोने होय छे–तेनुं वर्णन
कारणस्वभावज्ञान अने कार्यस्वभावज्ञान ए प्रमाणे स्वभावज्ञानना बे प्रकार कह्या.
विभावज्ञान सम्यक् अने मिथ्या एवा बे प्रकारनुं छे; तेमांथी सम्यग्ज्ञानना मति–श्रुति–अवधि ने मनः
पर्यय एवा चार भेद छे, तथा मिथ्याज्ञानना कुमति–कुश्रुत अने विभंग एवा त्रण भेद छे.
–ए प्रमाणे ज्ञानना कुल नव प्रकार थया. तेमांथी कयुं ज्ञान कया जीवोने होय छे ते कहे छे. –
–कारणस्वभावज्ञान कोने होय छे?
–कारणस्वभावज्ञान तो बधाय जीवोने त्रिकाळ होय छे.
–कार्यस्वभावज्ञान कोने होय छे?