–मति–श्रुत–अवधि ने मनःपर्यय ए चार सम्यग्ज्ञान कोने होय छे?
परमभावमां स्थित एवा सम्यग्द्रष्टि–साधकने ज ए चार सम्यग्ज्ञान होय छे. तेमां विशेषता एटली छे
मनःपर्ययज्ञान तो कोई विशिष्ट संयमधारी मुनिवरोने ज होय छे.
मिथ्याद्रष्टि जीवोने कुमति वगेरे त्रण अज्ञान होय छे; तेमांथी विभंगज्ञान कोई कोई मिथ्याद्रष्टिने होय
भावोमां स्थित नथी पण परमभावमां ज स्थित छे; ‘परमभाव’ एटले आत्मानो त्रिकाळी पारिणामिक
स्वभाव, तेमां जेणे पोतानी द्रष्टिने एकाग्र करी छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे, जेनी द्रष्टि रागादिमां एकाग्र छे ते
मिथ्याद्रष्टि छे.
पण ते बधाय समकिती ‘परमभाव’ मां स्थित होय छे. ‘परमभाव’ एटले शुं? शरीरादि तो जड अने
पर छे, ते नहि, पुण्य–पाप विकार छे ते पण नहि, मतिज्ञान वगेरे क्षायोपशमिकभाव छे ते पण नहि, ने
केवळज्ञान पण नहि, जेटला क्षणिकभावो छे ते कोई परमभाव नथी; आत्मानो जे त्रिकाळ एकरूप परम
पारिणामिकस्वभाव छे ते ज ‘परमभाव’ छे, ते सदाय शुद्ध छे, ते ज केवळज्ञान अने सम्यग्दर्शन वगेरेनो
आधार छे. सम्यग्द्रष्टि जीवो आवा परमभावनी भावनामां ज स्थित होय छे. कोई निमित्तनी, संयोगनी,
विकारनी के क्षणिकभावोनी भावनामां जे स्थित छे ते सम्यग्द्रष्टि नथी. बाह्यपदार्थोना अवलंबने जे धर्म
माने छे ते जीव परमभावमां स्थित नथी पण बाह्य पदार्थोमां ज स्थित छे, ए ज प्रमाणे रागना
अवलंबनथी जे धर्म माने छे ते रागमां ज स्थित छे, ते परमभावमां स्थित नथी एटले ते सम्यग्द्रष्टि
नथी ने तेने सम्यग्ज्ञान होतां नथी. एक समयमां परिपूर्ण आनंदकंद एवा पोताना परम स्वभावनी
प्रतीत अने भावना जेने नथी, ने रागादि बाह्यभावो–परभावोथी लाभ मानीने तेनी भावना जे भावे
छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, ने मिथ्याद्रष्टिनां ज्ञान पण मिथ्या ज होय छे. त्रिकाळ एकरूप, धु्रव,
कारणस्वभावरूप एवो जे परमभाव तेनी भावनाथी ज सम्यग्दर्शनादि थाय छे. जुओ, आ भावना
विकल्पवाळी नथी, पण परमभावने आश्रये जे भवन थयुं ते ज खरी भावना छे. विकल्पनी भावना नहि
तेम ज विकल्पथी भावना नहि, पण अंतर्मुख निर्विकल्प पर्यायथी आत्माना परमस्वभावनी भावना ते
मोक्षमार्ग छे. परमस्वभावमां एकाग्र थईने जे पर्याय परिणमी तेणे परमस्वभावनी भावना आवी, एम
कहेवाय छे; तद्रुप परिणमन वगर एकला विकल्पथी भावना भावे ते खरी भावना नथी. छठ्ठा–सातमा
गुणस्थाने वारंवार निर्विकल्प आनंदमां झूलता भावलिंगी संत हो.......के चक्रवर्तीराजमां ९६०००
राणीनी वच्चे रहेलो सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ हो, ते बंनेने आत्माना परमभावनी ज भावना होय छे,
रागादिपरभावोनी भावना तेमने होती नथी. तेथी तेओ रागमां स्थित नथी पण परमभावमां ज स्थित
छे. समकितीने राग होय ते वखते पण ते रागनी भावना तेमने होती नथी, परमभावनी ज भावना होय
छे. अने ते परमभावनी भावना जेम जेम उग्र थती जाय छे एटले के तेमां स्थिरता जामती जाय छे तेम
तेम गुणस्थान वधतुं जाय छे, ने ए ज उपायथी केवळज्ञान थाय छे. आ सिवाय एकली बहारनी क्रिया
उपरथी के कषायोनी मंदता उपरथी गुणस्थाननुं माप नथी. अंतर्मुख थईने पोताना परमभावने जे जाणे
छे तेने ज स्व–परप्रकाशक सम्यग्ज्ञान खीले छे. जे पोताना परमभावने नथी जाणतो, ने रागादि
परभावोने ज पोताना स्वभावपणे माने छे तेने स्व–परप्रकाशक सम्यग्ज्ञान होतुं नथी पण मिथ्याज्ञान
होय छे. रागादिथी के निमित्तोथी लाभ माननार जीव एकांत परज्ञेय