जाणतो नथी, एटले तेने सम्यग्ज्ञान होतुं नथी. आ रीते, जे परमभावनी भावनामां स्थित छे ते ज
सम्यग्द्रष्टि छे ने तेने सम्यग्ज्ञानो होय छे; तथा जे परम भावनी भावनामां स्थित नथी ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने
मिथ्याज्ञानो होय छे.
उपादेयरूप छे, अने ते सहजज्ञानना विलासरूपे आत्माने भाववो.
प्रत्यक्ष’ कहीने जुदुं पाडयुं छे. आ स्वरूप–प्रत्यक्ष सहजज्ञान आत्मामां सदाय वर्ते छे, ते परम आदरणीय छे.
त्रण अज्ञान तो छोडवा ज जेवा छे, चार सम्यग्ज्ञान पण आश्रय करवा योग्य नथी केमके ते अधूरा ज्ञानना
आश्रये पूरुं ज्ञान थतुं नथी; अने केवळज्ञान तो साधकने छे नहि तेथी तेनो पण आश्रय थतो नथी. साधकने
आदरवा योग्य तो परमस्वभाव सहजज्ञान ज छे; ते ज्ञान स्वरूप–प्रत्यक्षपणे त्रिकाळ वर्ते छे ने तेनो आश्रय
करतां केवळज्ञान प्रगटे छे. आ रीते केवळज्ञानना ध्रुवकारणरूप एवुं आ सहज स्वरूप–प्रत्यक्ष ज्ञान ज आदरवा
जेवुं छे. आ ज्ञान शुद्धतत्त्वमां सदा व्यापक छे, तेनामां कदी अशुद्धता के आवरण नथी, तेमज तेनो कदी विरह
नथी.
‘कारणस्वभावज्ञान’ अथवा तो ‘ज्ञाननी कारणशुद्ध पर्याय’ पण कहेवाय छे.
उत्तरः– ना; आ स्वरूपप्रत्यक्षज्ञान तो बधाय जीवोमां त्रिकाळ रहेलुं छे. अज्ञानदशामां पण आ
तेनुं भान छे, केवळज्ञान थया पहेलां पण तेने प्रतीत थई गई छे के केवळज्ञानना कारणरूप ज्ञान
मारामां ज वर्ती रह्युं छे; ते कारणज्ञानना आश्रये ज मारुं केवळज्ञानरूप कार्य थशे, ए सिवाय बीजुं
कोई मारा केवळज्ञाननुं कारण नथी. आ सहजस्वभावरूप स्वरूपप्रत्यक्षज्ञान ते अंर्तद्रष्टिनो विषय छे.
समकितीने ज ते प्रतीतमां आवे छे. आने ‘स्वरूपप्रत्यक्ष’ कहेवाय–एवा नामनी खबर कदाच
समकितीने भले न होय, पण अंतर्मुख वेदन थईने जे प्रतीति तेने थई तेमां आ स्वरूपप्रत्यक्षनी प्रतीत
पण भेगी आवी ज