Atmadharma magazine - Ank 189
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १८९
सन्मुख रहे छे ने परभावोमां ज वर्ते छे पण स्वसन्मुख थईने स्वज्ञेयरूप एवा पोताना परमभावने ते
जाणतो नथी, एटले तेने सम्यग्ज्ञान होतुं नथी. आ रीते, जे परमभावनी भावनामां स्थित छे ते ज
सम्यग्द्रष्टि छे ने तेने सम्यग्ज्ञानो होय छे; तथा जे परम भावनी भावनामां स्थित नथी ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने
मिथ्याज्ञानो होय छे.
ए रीते नव प्रकारना ज्ञानमांथी कया ज्ञान कोने होय ते बताव्युं. हवे तेना प्रत्यक्ष अने परोक्षपणानुं
वर्णन करशे......तेमां “स्वरूप–प्रत्यक्ष” ज्ञाननी अद्भुत वात आवशे.
(आ गाथाओना जे छ विषय कह्या हता तेमांथी बीजो विषय अहीं पूरो थयो.)
ज्ञानना प्रकारोमां प्रत्यक्ष–परोक्षनुं वर्णन
आ नियमसारनी ११–१२ मी गाथा चाले छे. तेमां पहेलां तो ज्ञानना ९ प्रकार बताव्या, पछी तेमांथी
क्या ज्ञान जीवने होय ते बताव्युं; हवे तेमां कया ज्ञान प्रत्यक्ष छे ने कया परोक्ष छे? ते कहे छे.
“अहीं (उपर कहेलां ९ ज्ञानोने विषे) सहजज्ञान शुद्धअंतःतत्त्वरूप परमतत्त्वमां व्यापक होवाथी
‘स्वरूप–प्रत्यक्ष’ छे. अने केवळज्ञान ‘सकलप्रत्यक्ष’ छे.”
पहेलां जे कारणस्वभावज्ञान कह्युं ते सहजज्ञान छे, आत्माना शुद्धअंतरस्वरूपमां ते सदाय रहेलुं छे तेथी
ते स्वरूप–प्रत्यक्ष छे. आनो परम महिमा बतावतां आगळ टीकाकार कहेशे के आ सहजज्ञान मोक्षनुं मूळ छे, ते
उपादेयरूप छे, अने ते सहजज्ञानना विलासरूपे आत्माने भाववो.
अहीं सहजज्ञानने ‘स्वरूप–प्रत्यक्ष’ कहीने वर्णव्युं छे ते आ नियमसारनी खास विशेषता छे. कोई एम
समजे के आ ‘स्वरूप–प्रत्यक्ष’ कह्युं्र ते केवळज्ञाननुं विशेषण छे,–तो एम नथी, केवळज्ञानने तो ‘सकल–
प्रत्यक्ष’ कहीने जुदुं पाडयुं छे. आ स्वरूप–प्रत्यक्ष सहजज्ञान आत्मामां सदाय वर्ते छे, ते परम आदरणीय छे.
त्रण अज्ञान तो छोडवा ज जेवा छे, चार सम्यग्ज्ञान पण आश्रय करवा योग्य नथी केमके ते अधूरा ज्ञानना
आश्रये पूरुं ज्ञान थतुं नथी; अने केवळज्ञान तो साधकने छे नहि तेथी तेनो पण आश्रय थतो नथी. साधकने
आदरवा योग्य तो परमस्वभाव सहजज्ञान ज छे; ते ज्ञान स्वरूप–प्रत्यक्षपणे त्रिकाळ वर्ते छे ने तेनो आश्रय
करतां केवळज्ञान प्रगटे छे. आ रीते केवळज्ञानना ध्रुवकारणरूप एवुं आ सहज स्वरूप–प्रत्यक्ष ज्ञान ज आदरवा
जेवुं छे. आ ज्ञान शुद्धतत्त्वमां सदा व्यापक छे, तेनामां कदी अशुद्धता के आवरण नथी, तेमज तेनो कदी विरह
नथी.
केवळज्ञान तो एक साथे सकल पदार्थोने प्रत्यक्ष जाणनारुं होवाथी सकल प्रत्यक्ष छे; ने सहजज्ञान
आत्मस्वरूपमां सदाय रहेलुं होवाथी स्वरूप–प्रत्यक्ष छे. आ स्वरूप–प्रत्यक्ष ते सकलप्रत्यक्षनुं कारण छे; तेथी तेने
‘कारणस्वभावज्ञान’ अथवा तो ‘ज्ञाननी कारणशुद्ध पर्याय’ पण कहेवाय छे.
प्रश्नः– आ स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान तो केवळीभगवानने ज होय ने?
उत्तरः– ना; आ स्वरूपप्रत्यक्षज्ञान तो बधाय जीवोमां त्रिकाळ रहेलुं छे. अज्ञानदशामां पण आ
स्वरूपप्रत्यक्षज्ञान रहेलुं तो छे पण अज्ञानीने तेनुं भान नथी एटले तेनुं कार्य प्रगटतुं नथी. साधकने
तेनुं भान छे, केवळज्ञान थया पहेलां पण तेने प्रतीत थई गई छे के केवळज्ञानना कारणरूप ज्ञान
मारामां ज वर्ती रह्युं छे; ते कारणज्ञानना आश्रये ज मारुं केवळज्ञानरूप कार्य थशे, ए सिवाय बीजुं
कोई मारा केवळज्ञाननुं कारण नथी. आ सहजस्वभावरूप स्वरूपप्रत्यक्षज्ञान ते अंर्तद्रष्टिनो विषय छे.
समकितीने ज ते प्रतीतमां आवे छे. आने ‘स्वरूपप्रत्यक्ष’ कहेवाय–एवा नामनी खबर कदाच
समकितीने भले न होय, पण अंतर्मुख वेदन थईने जे प्रतीति तेने थई तेमां आ स्वरूपप्रत्यक्षनी प्रतीत
पण भेगी आवी ज