Atmadharma magazine - Ank 189
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 21

background image
अशाडः २४८पः ७ः
गई छे. आ स्वरूपप्रत्यक्षज्ञान आत्माथी कांई जुदुं नथी, पण ते आत्मानो ज स्वभाव छे, एटले
आत्मस्वभावनी प्रतीतमां ते पण आवी ज जाय छे.
जेम लींडीपीपरनो तीखो स्वभाव छे, ने चोसठपहोरी तीखास प्रगटे ते तेनुं पुरुं कार्य छे; ते कार्य
प्रगटया पहेलां पण चोसठ पहोरी तीखास प्रगटवाना कारणरूप एक स्वभाव तेनामां वर्तमान वर्ते छे. तेम
आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे, ने केवळज्ञान प्रगटे ते तेनुं पूरुं कार्य छे; ते कार्य प्रगटया पहेलां पण केवळज्ञान
प्रगटवाना कारणरूप स्वभावज्ञान वर्तमान वर्ते छे, ते सहज छे, स्वरूपप्रत्यक्ष छे.
मुनि–श्रुतज्ञानने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष कहेवाय छे, ते आ वात नथी; आ तो स्वरूपप्रत्यक्षनी वात छे.
मतिश्रुतज्ञान ज्यारे अंतर्मुख थईने आत्मानुं वेदन करे छे त्यारे तेने ईंद्रिय वगेरेनुं अवलंबन छूटी गयुं छे
तेथी स्वसंवेदनमां ते मति–श्रुतज्ञानने पण प्रत्यक्ष कह्या छे, ते क्षायोपक्षमिकभावे छे; केवळज्ञान सकलप्रत्यक्ष छे,
ते क्षायिकभावे छे; अने सहजज्ञान ‘स्वरूप–प्रत्यक्ष’ छे, ते पारिणामिकभावे छे. ज्ञानमां एकलो उपशमभाव के
एकलो उदयभाव होतो नथी.
सहज स्वरूप–प्रत्यक्षज्ञान सदाय पारिणामिक भावे रहेलुं छे, एटले ते जाणवानुं कार्य नथी करतुं,–ते
कार्यरूप नथी पण कारणरूप छे, कारणरूपे तेनामां पूरुं सामर्थ्य छे अने तेना आश्रये पूरुं कार्य (केवळज्ञान)
प्रगटी जाय छे ते स्व–परने जाणवानुं कार्य करे छे.
जेनामां कारणरूपे पूरुं सामर्थ्य छे एवुं स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान तो बधा जीवोमां छे, पण तेनो जे
स्वीकार करे तेने सम्यग्ज्ञान थईने, अनुक्रमे तेना ज आश्रये सकलप्रत्यक्ष एवुं केवळज्ञान थाय छे. अने
जेने पोताना आवा ज्ञानसामर्थ्यनुं भान नथी ने इंद्रियोने ज पोताना ज्ञानना साधन तरीके स्वीकारे छे
ते मूढप्राणी एकला ईंद्रियज्ञानरूप मिथ्याज्ञानवडे संसारमां ज रखडे छे. आ स्वरूपप्रत्यक्ष ज्ञानना
स्वीकारवडे मोक्ष थाय छे, तेथी ते ज्ञान मोक्षनु्र मूळ छे. दसमी गाथामां जेने कारणस्वभावज्ञानउपयोग
कह्यो तेने ज अहीं स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान कह्युं छे; ते आत्मानो परम स्वभाव छे ने मोक्षनुं मूळ छे,
तेथी ते उपादेय छे.
केवळज्ञान तो नवुं थाय छे, अत्यारे साधकदशामां तो तेनो विरह छे तेथी ते स्वरूप–प्रत्यक्ष नथी.
सहजज्ञान तो आत्मामां त्रिकाळ अविच्छिन्नपणे रहेलुं छे, तेनो कदी विरह नथी, तेथी ते स्वरूपप्रत्यक्ष छे–आवो
आत्मानो स्वभाव छे ते सम्यग्दर्शननो विषय छे. तेना अवलंबने जे निर्मळपर्याय नवी प्रगटी ते पण
अभेदरूपे सम्यग्दर्शनना विषयमां आवी जाय छे. निर्मळपर्याय आत्मा साथे अभेद छे, एटले ते सम्यग्दर्शनना
विषयथी जुदी नथी रहेती.
अहीं आत्माना ज्ञानस्वभावनो परम पारिणामिकभाव बताववो छे. जेम धर्मास्तिकाय, आकाश
वगेरे त्रिकाळ पारिणामिकभावे वर्ते छे तेम आत्माना ज्ञानादि स्वभावो पण त्रिकाळ पारिणामिकभावे
वर्ते छे, कर्मनी अपेक्षावाळा जे चार भावो छे ते व्यवहारनयना विषयो छे, ने पारिणामिकस्वभाव ते
निश्चयनयनो विषय छे. ज्ञाननो जे परम पारिणामिकस्वभाव छे ते ज केवळज्ञाननो आधार छे. अहीं
ज्ञानगुणनी वात करी ते प्रमाणे श्रद्धा–आनंद वगेरे बधा गुणोमां पण समजी लेवुं. आगळ १पमी
गाथामां आखा द्रव्यना पारिणामिकभावरूप कारणशुद्धपर्यायनी वात आवशे, ते शुद्ध कार्य प्रगटवानुं मूळ
कारण होवाथी टीकाकार मुनिराज तेने ‘पूज्य परिणति–कहेशे. जो के सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञान वगेरे
परिणति प्रगटे ते पण पूज्य छे, परंतु अहीं तो आत्मानी साथे सदाय वर्तती पूज्यपरिणतिनी वात छे,
एटले के पारिणामिकभावे वर्तती परिणतिनी वात छे.
ज्ञाननी पारिणामिकभावे वर्तती सहज परिणति तो स्वरूपप्रत्यक्ष छे, अने केवळज्ञान ते संपूर्णप्रत्यक्ष
छे. आ प्रमाणे बे ज्ञानोनी वात करी; हवे बाकीना ज्ञानोमां प्रत्यक्ष–परोक्षपणुं कया प्रकारे छे ते कहे छे.
रुपिष्ववधेः’ एवुं सूत्रनुं वचन होवाथी अवधिज्ञान विकल्पप्रत्यक्ष छे अर्थात् ते रूपी पदार्थोने ज
प्रत्यक्ष जाणे छे; अने मनःपर्ययज्ञान पण तेना अनंतमा भागे वस्तुने जाणनारुं होवाथी विकल प्रत्यक्ष छे.
साधकनो उपयोग ज्यारे आत्मा तरफ होय छे त्यारे तेने मति–श्रुतज्ञान होय छे, अवधि के मनःपर्ययज्ञाननो
वेपार ते वखते होतो नथी. अवधि अने मनःपर्ययज्ञान तो परविषयोने ज जाणे छे अने तेमां पण रूपी
पदार्थोने ज जाणे छे.