संबंधवाळा होवाथी अहीं तेमने मूर्त गणवामां आव्या छे. आ रीते अवधि अने मनःपर्ययज्ञान एक अंशे
प्रत्यक्ष छे. मनःपर्ययज्ञान तो उत्तम मुनिओने ज होय छे, तेनुं घणुं सामर्थ्य छे, छतां ते पण एकदेश–प्रत्यक्ष छे.
केवळज्ञान सकल–प्रत्यक्ष छे ने अवधि–मनःपर्ययज्ञान विकल–प्रत्यक्ष छे. मनःपर्ययज्ञाननो विषय अवधिज्ञान
करतां थोडो छे, परंतु अवधिज्ञान करतां अनंतगणी सूक्ष्मताने पण ते जाणी शके छे.
खरेखर प्रत्यक्ष छे. पर विषयोने ईंद्रिय अने मनना अवलंबनपूर्वक अस्पष्ट जाणे छे तेथी ते ज्ञानने परोक्ष
कह्यां छे, अने व्यवहारथी ‘इंद्रिय–प्रत्यक्ष’ जाणे छे ते अपेक्षाए व्यवहारे प्रत्यक्ष कह्यां छे; पण ईंद्रियद्वारा जे
प्रत्यक्ष थयुं ते खरेखर प्रत्यक्ष नथी पण परोक्ष ज छे, तेथी निश्चयथी ते मति–श्रुतज्ञान परने परोक्ष ज जाणे छे;
ने स्वविषयने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष जाणे छे, स्वविषयने जाणवामां ईंद्रियोनुं ने मननुं अवलंबन नथी.
श्रुतज्ञानवडे आत्मानुं प्रत्यक्ष संवेदन थया वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि. चोथा गुणस्थाने गृहस्थदशामां
रहेला अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण निर्विकल्प अनुभवरूप स्वसंवेदनदशामां मतिश्रुतज्ञान प्रत्यक्ष छे. पंचाध्यायी
वगेरेमां पण आ वात स्पष्ट करी छे.
मान्यतानुं बहु सरस युक्तिथी जयधवलामां वीरसेनस्वामीए खंडन करी नाख्युं छे. त्यां तो कहे छे जो
ईंद्रियोथी ज्ञाननी उत्पत्ति थवानुं मानशो तो आत्माना अभावनो प्रसंग आवशे
तेना समाधानमां कहे छे–एम नथी, मति ज्ञानादि ईंद्रियोथी उत्पन्न थता नथी पण सामान्य ज्ञानमांथी
जीवना गुणस्वरूप ज्ञाननो अभाव थई जवाथी, गुणी एवा जीवना पण अभावनो प्रसंग आवे छे.
छे के–केवळज्ञान असिद्ध छे–एम नथी, केमके स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा केवळज्ञानना अंशरूप ज्ञाननी निर्भावरूपे
उपलब्धि थाय छे. मतिश्रुतज्ञान ते केवळज्ञानना अंशरूप छे, ने तेनी उपलब्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी बधाने थाय
छे; माटे केवळज्ञानना अंशरूप अवयव प्रत्यक्ष होतां केवळज्ञानरूप अवयवीने परोक्ष कहेवो ते युक्त नथी; केमके
एम मानतां, चक्षुद्वारा जेनो एक भाग प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे एवा थांभलानी पण परोक्षतानो प्रसंग आवी
जाय छे. अहो! मतिज्ञानना स्वसंवेदनमां केवळज्ञाननो विरह नथी...मतिज्ञाननी संधि केवळज्ञान साथे छे,
मतिज्ञाननुं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष थयुं त्यां केवळज्ञान पण प्रत्यक्ष थई गयुं. जुओ, आ संतोनी वाणी!!
संतोए पंचमकाळे केवळज्ञानना विरह भूलावी दीधा छे.