Atmadharma magazine - Ank 189
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः १८९
मनःपर्ययज्ञान जो के मनसंबंधी सूक्ष्म परिणामोने पण प्रत्यक्ष जाणे छे, परंतु ते परिणामो रूपी–मनना
संबंधवाळा होवाथी अहीं तेमने मूर्त गणवामां आव्या छे. आ रीते अवधि अने मनःपर्ययज्ञान एक अंशे
प्रत्यक्ष छे. मनःपर्ययज्ञान तो उत्तम मुनिओने ज होय छे, तेनुं घणुं सामर्थ्य छे, छतां ते पण एकदेश–प्रत्यक्ष छे.
केवळज्ञान सकल–प्रत्यक्ष छे ने अवधि–मनःपर्ययज्ञान विकल–प्रत्यक्ष छे. मनःपर्ययज्ञाननो विषय अवधिज्ञान
करतां थोडो छे, परंतु अवधिज्ञान करतां अनंतगणी सूक्ष्मताने पण ते जाणी शके छे.
‘मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान बंने परमार्थथी परोक्ष छे अने व्यवहारथी प्रत्यक्ष छे’–अहीं परविषयनी
अपेक्षाए मति–श्रुतज्ञानने परोक्ष कह्यां छे–एम समजवुं. स्व–विषयनी अपेक्षाए तो मति–श्रुतज्ञान पण
खरेखर प्रत्यक्ष छे. पर विषयोने ईंद्रिय अने मनना अवलंबनपूर्वक अस्पष्ट जाणे छे तेथी ते ज्ञानने परोक्ष
कह्यां छे, अने व्यवहारथी ‘इंद्रिय–प्रत्यक्ष’ जाणे छे ते अपेक्षाए व्यवहारे प्रत्यक्ष कह्यां छे; पण ईंद्रियद्वारा जे
प्रत्यक्ष थयुं ते खरेखर प्रत्यक्ष नथी पण परोक्ष ज छे, तेथी निश्चयथी ते मति–श्रुतज्ञान परने परोक्ष ज जाणे छे;
ने स्वविषयने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष जाणे छे, स्वविषयने जाणवामां ईंद्रियोनुं ने मननुं अवलंबन नथी.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान थती वखते मति–श्रुतज्ञानमां आत्मानुं जे स्वसंवेदन थाय छे तेने प्रत्यक्ष कहेवाय छे.
आत्मवेदनमां तो समकितीना मति–श्रुतज्ञान पण अतीन्द्रिय छे, प्रत्यक्ष छे. निर्विकल्प अनुभवमां मति–
श्रुतज्ञानवडे आत्मानुं प्रत्यक्ष संवेदन थया वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि.
चोथा गुणस्थाने गृहस्थदशामां
रहेला अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण निर्विकल्प अनुभवरूप स्वसंवेदनदशामां मतिश्रुतज्ञान प्रत्यक्ष छे. पंचाध्यायी
वगेरेमां पण आ वात स्पष्ट करी छे.
मति–श्रुतज्ञान परविषयोने जाणवामां ईंद्रियो ने मनना अवलंबनपूर्वक प्रवर्ते छे ने ते पण अस्पष्ट
जाणे छे, तेथी तेने परोक्ष कहेल छे; त्यां, ईंद्रियोने लीधे ज ते ज्ञान थवानुं अज्ञानी जीव मानी ल्ये छे. तेनी ए
मान्यतानुं बहु सरस युक्तिथी जयधवलामां वीरसेनस्वामीए खंडन करी नाख्युं छे. त्यां तो कहे छे जो
ईंद्रियोथी ज्ञाननी उत्पत्ति थवानुं मानशो तो आत्माना अभावनो प्रसंग आवशे
शंकाकार कहे छे–ईंद्रियोथी उत्पन्न थवाना कारणे मतिज्ञान वगेरेने केवळज्ञान कही शकातुं नथी.
तेना समाधानमां कहे छे–एम नथी, म
ति ज्ञानादि ईंद्रियोथी उत्पन्न थता नथी पण सामान्य ज्ञानमांथी
ते विशेष आवे छे. जो ज्ञान ईंद्रियोथी उत्पन्न थाय छे–एम मानी लेवामां आवे तो, ईंद्रिय व्यापारनी पहेलां
जीवना गुणस्वरूप ज्ञाननो अभाव थई जवाथी, गुणी एवा जीवना पण अभावनो प्रसंग आवे छे.
त्यारे फरीने शंकाकार दलील करे छे के – इंद्रियव्यापारनी पहेलां जीवमां ज्ञानसामान्य रहे छे, ज्ञानविशेष
नहि; ज्ञानविशेष तो ईंद्रियना वेपारद्वारा थाय छे. आ रीते जीवनो अभाव थतो नथी.
तेना समाधानमां कहे छे के एम पण नथी; केमके ज्ञानसामान्यथी ज्ञानविशेष जुदुं नथी. जीवनो
ज्ञानस्वभाव पोते ज विशेषरूपे परिणमीने विशेषज्ञान थाय छे. ईंद्रियोने लीधे विशेषज्ञान थतुं नथी.
(जुओ, कषायप्राभृत भाग १, पृ. ४९–प०)
त्यां कषायप्राभृतमां प्रकरण तो केवळज्ञाननी सिद्धिनुं छे. मतिज्ञानरूप अंश प्रत्यक्ष छे तेना उपरथी
केवळज्ञाननी सिद्धि करी छे. त्यां अंतरनी अलौकिक युक्ति आपीने आचार्यभगवान केवळज्ञानने सिद्ध करतां कहे
छे के–केवळज्ञान असिद्ध छे–एम नथी, केमके स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा केवळज्ञानना अंशरूप ज्ञाननी निर्भावरूपे
उपलब्धि थाय छे. मतिश्रुतज्ञान ते केवळज्ञानना अंशरूप छे, ने तेनी उपलब्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी बधाने थाय
छे; माटे केवळज्ञानना अंशरूप अवयव प्रत्यक्ष होतां केवळज्ञानरूप अवयवीने परोक्ष कहेवो ते युक्त नथी; केमके
एम मानतां, चक्षुद्वारा जेनो एक भाग प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे एवा थांभलानी पण परोक्षतानो प्रसंग आवी
जाय छे. अहो! मतिज्ञानना स्वसंवेदनमां केवळज्ञाननो विरह नथी...मतिज्ञाननी संधि केवळज्ञान साथे छे,
मतिज्ञाननुं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष थयुं त्यां केवळज्ञान पण प्रत्यक्ष थई गयुं. जुओ, आ संतोनी वाणी!!
संतोए पंचमकाळे केवळज्ञानना विरह भूलावी दीधा छे.
(जुओ कषायप्राभृत भाग १ पृ. ४४–४प)