Atmadharma magazine - Ank 190
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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श्रावणः २४८पः ९ः
(८)
(नियमसार गा. ११–१२ चालु)
अहो! मुनिओना आत्मामांथी अमृत झर्या
छे........अंतरमां ‘कारण’ ना सेवनथी सिद्धपदरूप
कार्यने साधतां साधतां आ रचना थई छे....तेमां
‘कारण’ प्रत्येनो अचिंत्य आह्लाद प्रसिद्ध कर्यो
छे....जेणे अंतर्मुख थईने सम्यग्दर्शनरूप कार्य प्रगट कर्युं
अने आत्माना आनंदनो जराक स्वाद चाख्यो तेने तेना
कारणना अचिंत्य महिमानी खबर पडी.–अहो! आवा
आनंदनुं कारण मारो आत्मा ज छे ने आ ज मारे
उपादेय छे....जेना अंतरमां आ सहजस्वभावनो महिमा
आवी गयो तेना आत्मामां मोक्षनां बीज रोपाई गया.
जेनां महाभाग्य होय तेने आ वात काने पडे तेवी
छे.....अने जेना अंतरमां आ वात बेसी गई–तेनी तो
वात ज शी! एनो तो बेडो पार थई गयो.
हे आत्मार्थी जीवो! अंतर्मुख थईने तमारा
सहजस्वभावने उपादेय करो.–आवो संतोनो उपदेश छे.
ज्ञानना प्रकारोमां उपादेय ज्ञान कयुं छे तेनुं वर्णन
आ नियमसारनी ११–१२मी गाथा चाले छे; तेमां, आत्मा उपयोगस्वरूप छे, तेना ज्ञानउपयोग प्रकारो
कह्या. पछी तेमांथी कया प्रकारो कोने होय छे ते कह्युं, अने पछी तेमां प्रत्यक्ष–परोक्षपणानुं वर्णन कर्युं.
“वळी विशेष ए छे के उपर कहेलां ज्ञानोमां साक्षात् मोक्षनुं मूळ निज परमतत्त्वमां स्थित एवुं एक
सहजज्ञान ज छे; तेमज ते सहजज्ञान तेना पारिणामिक भावरूप स्वभावने लीधे भव्यनो परम स्वभाव