Atmadharma magazine - Ank 190
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः १९०
होवाथी, सहजज्ञान सिवाय बीजुं कांई उपादेय नथी.”
जुओ, आ उपादेयतत्त्वनुं वर्णन! उपादेय शुं छे के जेना आश्रये मुक्ति थाय? तेनी आ वात छे.
जड देहादिनी क्रिया तो उपादेय नथी, राग तो उपादेय नथी ने ज्ञानादिना क्षणिकभावो पण उपादेय नथी
एटले के ते भेदोनो आश्रय करवा योग्य नथी, केमके तेनो आश्रय करवाथी राग थाय छे पण मुक्ति थती
नथी. आत्माना परमस्वभावरूप जे सहजज्ञान छे ते ज उपादेय छे, तेना आश्रये केवळज्ञान अने मोक्षदशा
थई जाय छे, तेथी ते ज मोक्षनुं मूळ छे; अने ते ज्ञान आत्माना परम तत्त्वमां सदाय वर्ती रह्युं छे. अहीं
तो महामुनिराज स्पष्ट कहे छे के अहो! आवा ज्ञान सिवाय बीजुं कांई उपादेय नथी. आ सहजज्ञाननो
आश्रय करवो ते ज साक्षात् मोक्षनुं मूळ छे; आ सिवाय व्यवहारनो–रागनो–निमित्तनो आश्रय करवो ते
मोक्षनुं कारण नथी पण संसारनुं कारण छे.
अहीं सहजज्ञानने ज मोक्षनुं मूळ कारण कह्युं, केमके तेमां लीनताथी ज मोक्ष थाय छे. नीचेना
चारज्ञानोने मोक्षनुं कारण न कह्युं केमके तेमनो तो अभाव थईने केवळज्ञान थाय छे, तेथी तेओ परमार्थे मोक्षनुं
कारण नथी. अने केवळज्ञान तो पोते मोक्षस्वरूप छे; परंतु साधकने ते केवळज्ञान होतुं नथी. सहजज्ञान सदाय
पारिणामिकस्वभावे वर्ती रह्युं छे, ते त्रिकाळ मोक्षस्वरूप छे, ने तेमां लीन थईने उपादेय करतां मोक्षपर्याय
प्रगटी जाय छे. आ रीते मोक्षना मूळरूप एवुं आ सहजज्ञान ज उपादेय छे.
वीतरागी मुनिराज उपदेश आपे छे के–हे भव्य! आवुं सहजज्ञान तारो परमस्वभाव छे; माटे
अंतर्मुख थईने तेने ज तुं उपादेय कर. आ सहजज्ञान तारो पारिणामिकस्वभाव छे, ते क्यारेय ताराथी जुदुं
पडतुं नथी. जेनो कदी विरह नथी एवुं आ स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान ज साक्षात् मोक्षनुं मूळ छे, तेनामां ज
मुक्ति आपवानुं सामर्थ्य छे, माटे तारा श्रद्धा–ज्ञानमां तेने ज तुं उपादेय कर. केवळज्ञान तो वर्तमानदशामां
छे नहि, ते तो प्रगट करवानुं छे, साधकने सम्यग्मति श्रुतज्ञान छे ते परंपरा मोक्षनुं कारण छे पण ते
साक्षात् मोक्षनुं कारण नथी. तो साक्षात् मोक्षना कारणरूपे कयुं ज्ञान विद्यमान छे–ते अहीं बतावे छे.
पारिणामिकभावे आत्माना निजतत्त्वमां त्रिकाळ लवलीन वर्ततुं एवुं सहजज्ञान ज मोक्षनुं साक्षात् कारण
छे, माटे ते ज उपादेय छे. जेम निश्चय व्यवहारना अनेक पडखां जाणीने तेमां शुद्ध निश्चय ज उपादेय छे,
तेम अहीं ज्ञानना अनेक प्रकारो बतावीने मुनिराज प्रद्मप्रभ भगवान कहे छे के ज्ञानना बधा प्रकारोमां आ
परमस्वभावरूप सहजज्ञान ज उपादेय छे, ए सिवाय बीजुं कांई उपादेय नथी. ज्ञानना क्षणिकभावो उपादेय
नथी, पण ते सिवाय ज्ञाननो एक एवो सहजभाव छे के जे सदाय सद्रशरूप वर्ते छे, धु्रवरूप छे,
परमस्वभावरूप छे; आवो परमस्वभावभाव ज उपादेय छे
अत्यारे अहीं ज्ञाननुं वर्णन चाले छे तेथी तेनी वात करी छे; पण ते ज्ञाननी जेम श्रद्धा–आनंद वगेरे
बधा गुणोमां पण जे सहजस्वभावरूप भाव वर्ते छे ते ज परम उपादेय छे–एम समजवुं. आत्माना ज्ञान–
दर्शन–आनंद–वीर्य–सुख–चारित्र वगेरे बधा गुणोमां पोतपोतानो सहजभाव एकरूप सद्रश परिणतिथी
अनादिअनंत वर्ते छे, अने ते ‘वर्तमान वर्ततो सहजभाव’ ज ते ते गुणनी पूर्णदशानो दातार छे. चोथा
गुणस्थाने सम्यग्दर्शन थतां जे सहज आनंदनुं वेदन थयुं, तथा तेरमा गुणस्थाने तेवा परिपूर्ण आनंदनुं वेदन
थयुं, ते आनंदनो दातार कोण? ‘आनंदनो जे सदाय एकरूप सहजभाव वर्ते छे ते ज प्रगट आनंदनो दातार
छे. आनंदनो जे आ सहजभाव त्रिकाळ वर्ते छे ते पोते वेदनरूप नथी पण तेना आश्रयथी आनंदनुं वेदन नवुं
प्रगटे छे, तेथी ते सहजभाव आनंदनुं मूळ छे.
–आ प्रमाणे आनंदनी माफक श्रद्धा वगेरे बधा गुणोमां पण समजी लेवुं, आत्मानो आवो सहजस्वभाव
ज उपादेय छे. अहो! आ कोई अद्भुत वात छे. जेना अंतरमां आ सहज स्वभावनो महिमा आवी गयो
तेना आत्मामां मोक्षनां बीज रोपाई गयां.
आत्मामां पारिणामिक भावे स्थित, सहजभावे सदा वर्ततुं एवुं स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान ते मोक्षनुं मूळ छे; ते
पोते मोक्षमार्गरूप नथी पण तेनो आश्रय करवाथी मोक्षमार्ग तथा मोक्षपर्याय प्रगटी जाय छे. मतिज्ञान वखते
के केवळज्ञान वखते ते सदा एकरूपे वर्ते छे, तेनुं परिणमन सद्रशरूप छे, तेनामां हीनाधिकता थती