
सूचववा, पण तेनुं दरेक समये वर्तमान विद्यमानपणुं समजवुं छे.
अंतरमां आ वात बेसी गई–तेनी तो वात ज शी!! एनो तो बेडो पार थई गयो.
तो परिणमी ज रही छे. पुद्गलोमां जे रस गुण छे ते तो सामान्य छे, पण लींडीपीपरमां जे चोसठ पहोरी
तीखासनी शक्तिरूप परिणमन छे ते एक खास भाव छे. तेम आत्मामां ज्ञानस्वभाव छे, ते ज्ञानस्वभावमां
सर्वज्ञतानी शक्तिरूप परिणमन तो सदाय चालु ज छे. जो ते शक्तिरूप परिणमन न होय तो सर्वज्ञतानी
व्यक्ति शेमांथी थाय! अहीं वर्तमान कार्यनो आधार पण वर्तमान ज छे–ते बताववुं छे. व्यक्तरूपे भले
मतिज्ञान हो के केवळज्ञान हो, पण सर्वज्ञतानी शक्ति तो ज्ञानमां परिणमी ज रही छे. ज्ञानगुण त्रिकाळ
सामान्य लेवो, ने ते ज्ञानमां सर्वज्ञतानुं कारण थवानी ताकात वर्तमान पण वर्ती रही छे ते अहीं बताववुं छे.
ज्ञाननो आ सहजभाव सदा परिणमनपणे वर्ती ज रह्यो छे. पर्यायना उत्पाद–व्ययरूप जे परिणमन छे–तेनी
आ वात न समजवी, पण ज्ञाननो सहजभाव जे सदा सद्रशरूपे वर्ते छे तेनी आ वात छे.
वर्तमानमां पोताने तो छे नहि, तो द्रष्टिने क्यां थंभावशे? केवळज्ञाननो जे आधार छे एवो वर्तमान
सहजस्वभावरूप उपयोग के जे अत्यारे पण एकरूप परिपूर्ण सामर्थ्य सहित वर्ती रह्यो छे, तेना उपर मीट
मांडवा जेवुं छे; तेना उपर मीट मांडतां साधकदशा थईने केवळज्ञान खीली जाय छे. आ रीते आ सहजज्ञान ज
मोक्षनुं मूळ होवाथी उपादेय छे.
शरीरादि तो जड छे, पुण्य–पाप तो विकार छे ने मति–श्रुत ज्ञान तो अधूरा छे, ते कोईनामां एवी
पोताने ते पर्याय नथी तेथी ‘केवळज्ञान नथी ने प्रगट करुं’ एवी आकुळता थाय छे, ने आकुळता तो
केवळज्ञानने अटकावनार छे; माटे केवळज्ञान पर्याय उपर मीट मांडवी ते पण केवळज्ञाननो उपाय नथी एटले के
ते पण मोक्षनुं मूळ नथी.–तो कोना उपर मीट मांडवी? तारा ज्ञानना धु्रवआधाररूप सहजज्ञानस्वभाव अत्यारे
पण तारामां वर्ती रह्यो छे ने ते ज मोक्षनुं मूळ छे, माटे तेना उपर ज मीट मांड!–तेना उपर मीट मांडतां तारुं
केवळज्ञान खीली जशे.
केवळज्ञानना पंथे चडी गयो.......हवे अल्पकाळमां ते केवळज्ञान पामी जशे.
होवाथी परम उपादेय छे. सम्यग्दर्शनने मोक्षनुं मूळ कहेवाय छे ते पण पर्याय अपेक्षाए व्यवहारथी छे; एक
वारपण जेणे सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं ते जीव अल्पकाळमां अवश्य मोक्ष पामशे,–ए प्रकारे सम्यग्दर्शननो महिमा
समजाववा माटे ते सम्यग्दर्शनने मोक्षनुं मूळ कहेवाय छे. पण ते सम्यग्दर्शन