Atmadharma magazine - Ank 190
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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श्रावणः २४८पः ११ः
नथी. परिणमन होवा छतां ते कार्यरूप नथी पण कारणरूप छे. ‘परिणमन’ कहीने अहीं उत्पाद–व्यय नथी
सूचववा, पण तेनुं दरेक समये वर्तमान विद्यमानपणुं समजवुं छे.
अहो! मुनिओना आत्मामांथी अमृत झर्यां छे. आ अचिंत्य अपूर्व वात छे..... हिंदुस्तानने माटे
अत्यारे आ वात तद्न नवी छे. जेनां महाभाग्य होय तेने आ वात काने पडे तेवी छे.....अने जेना
अंतरमां आ वात बेसी गई–तेनी तो वात ज शी!! एनो तो बेडो पार थई गयो.
(आखी सभाए महाहर्षपूर्वक जयजयकारथी पू. गुरुदेवनी आ वातने वधावी लीधी....ने
गद्गदभक्तिथी गुरुदेवना अनंत उपकारने प्रसिद्ध कर्यो)
आ तो अंतरना सूक्ष्म रहस्यनी वात छे....आमां द्रष्टांत पण शुं आपवुं? द्रष्टांत आपीने समजाववा
जतां स्थूळता थई जाय छे, छतां साधारणपणे लींडीपीपरनुं द्रष्टांत लईए–
जेम लींडीपीपरनो तीखो स्वभाव छे, ते स्वभावनुं ६४ पहोरी तीखासनी शक्तिरूप परिणमन तो
सदाय चालु ज छे, व्यक्तरूपे भले १ पहोरी तीखास हो के ६४ पहोरी हो, पण चोसठ पहोरी तीखासनी शक्ति
तो परिणमी ज रही छे. पुद्गलोमां जे रस गुण छे ते तो सामान्य छे, पण लींडीपीपरमां जे चोसठ पहोरी
तीखासनी शक्तिरूप परिणमन छे ते एक खास भाव छे. तेम आत्मामां ज्ञानस्वभाव छे, ते ज्ञानस्वभावमां
सर्वज्ञतानी शक्तिरूप परिणमन तो सदाय चालु ज छे. जो ते शक्तिरूप परिणमन न होय तो सर्वज्ञतानी
व्यक्ति शेमांथी थाय! अहीं वर्तमान कार्यनो आधार पण वर्तमान ज छे–ते बताववुं छे. व्यक्तरूपे भले
मतिज्ञान हो के केवळज्ञान हो, पण सर्वज्ञतानी शक्ति तो ज्ञानमां परिणमी ज रही छे. ज्ञानगुण त्रिकाळ
सामान्य लेवो, ने ते ज्ञानमां सर्वज्ञतानुं कारण थवानी ताकात वर्तमान पण वर्ती रही छे ते अहीं बताववुं छे.
ज्ञाननो आ सहजभाव सदा परिणमनपणे वर्ती ज रह्यो छे. पर्यायना उत्पाद–व्ययरूप जे परिणमन छे–तेनी
आ वात न समजवी, पण ज्ञाननो सहजभाव जे सदा सद्रशरूपे वर्ते छे तेनी आ वात छे.
भव्य जीवोने आ सहजज्ञान ज उपादेय छे; आत्माना परम पारिणामिक स्वभावरूप एवा आ
सहजज्ञान सिवाय बीजुं कांई खरेखर उपादेय नथी. जो केवळज्ञानपर्यायनुं उपादेय करवा जाय तो ते पर्याय
वर्तमानमां पोताने तो छे नहि, तो द्रष्टिने क्यां थंभावशे? केवळज्ञाननो जे आधार छे एवो वर्तमान
सहजस्वभावरूप उपयोग के जे अत्यारे पण एकरूप परिपूर्ण सामर्थ्य सहित वर्ती रह्यो छे, तेना उपर मीट
मांडवा जेवुं छे; तेना उपर मीट मांडतां साधकदशा थईने केवळज्ञान खीली जाय छे. आ रीते आ सहजज्ञान ज
मोक्षनुं मूळ होवाथी उपादेय छे.
जुओ, आ मोक्षनुं मूळ!
शरीरादि तो जड छे, पुण्य–पाप तो विकार छे ने मति–श्रुत ज्ञान तो अधूरा छे, ते कोईनामां एवी
ताकात नथी के मोक्षपद आपे,–माटे ते कोई मोक्षनुं मूळ नथी. हवे केवळज्ञानपर्याय उपर मीट मांडवा जाय तो,
पोताने ते पर्याय नथी तेथी ‘केवळज्ञान नथी ने प्रगट करुं’ एवी आकुळता थाय छे, ने आकुळता तो
केवळज्ञानने अटकावनार छे; माटे केवळज्ञान पर्याय उपर मीट मांडवी ते पण केवळज्ञाननो उपाय नथी एटले के
ते पण मोक्षनुं मूळ नथी.–तो कोना उपर मीट मांडवी? तारा ज्ञानना धु्रवआधाररूप सहजज्ञानस्वभाव अत्यारे
पण तारामां वर्ती रह्यो छे ने ते ज मोक्षनुं मूळ छे, माटे तेना उपर ज मीट मांड!–तेना उपर मीट मांडतां तारुं
केवळज्ञान खीली जशे.
अहो! आ समजे तेनी बुद्धि अंतरस्वभावमां वळी जाय.....अंर्तस्वभाव सिवाय जडनी क्रियानो,
रागनो के अधूरी दशानो आदर तेनी बुद्धिमां रहे नहि. जेणे आवा अंर्तस्वरूपे ज उपादेय तरीके स्वीकार्युं ते
केवळज्ञानना पंथे चडी गयो.......हवे अल्पकाळमां ते केवळज्ञान पामी जशे.
जडनी ने विकारनी वात तो क्यांय ऊडी गई! पण सम्यक् मति–श्रुतज्ञानने केवळज्ञाननुं कारण कहेवुं ते
पण व्यवहारथी छे. परमार्थे तो त्रिकाळ कारण स्वभावज्ञान ज केवळज्ञाननुं कारण छे; अने ते ज मोक्षनुं मूळ
होवाथी परम उपादेय छे. सम्यग्दर्शनने मोक्षनुं मूळ कहेवाय छे ते पण पर्याय अपेक्षाए व्यवहारथी छे; एक
वारपण जेणे सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं ते जीव अल्पकाळमां अवश्य मोक्ष पामशे,–ए प्रकारे सम्यग्दर्शननो महिमा
समजाववा माटे ते सम्यग्दर्शनने मोक्षनुं मूळ कहेवाय छे. पण ते सम्यग्दर्शन