
सहजज्ञानरूप परमस्वभावने उपादेय करवाथी ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ने मोक्ष थाय छे, तेथी ते
परम स्वभाव ज मोक्षनुं मूळ छे–एम जाणवुं, अने मोक्षनी जेम सम्यग्दर्शनादिनुं पण मूळ ते ज छे, एम
समजवुं.
उपर द्रष्टि गई त्यां बहारना बधाय कारणो उपर पाणी फरी वळे छे– अर्थात् बहारनुं कोई पण कारण पोताना
कारण तरीके देखातुं नथी. तिर्यंच–देडका वगेरेनो जीव हो के आठ वर्षना बाळकनो जीव हो,–अंर्तस्वरूपना
अवलंबने ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां तेने आवुं भान थाय छे के अहो! आ मारो सहजस्वभाव ज मारा
सम्यग्दर्शनादि कार्योनुं कारण छे, ने आ ज मारे सर्वथा उपादेय छे, आ सिवाय बीजुं कोई कारण मारे उपादेय
नथी.
बाह्य कारणोना अवलंबननो भुक्को उडाडी दीधो छे, ने अंतरमां मोक्षनुं मूळ कारण बतावीने तेनुं
अवलंबन कराव्युं छे.
छे.–तेना अवलंबने कार्य सधाई रह्युं छे. ‘कार्य’ वगर ‘कारण’ ना महिमानी खबर न पडे. जेम
लींडीपीपरनी एक पहोरी तीखास जेटलो जराक पण स्वाद चाखे तो खबर पडे के आवी चोसठ पहोरी
(परिपूर्ण) तीखास प्रगटवानी ताकात आ लींडीपीपरमां भरी छे–तेम जेणे अंतर्मुख थईने सम्यग्दर्शनरूप
कार्य प्रगट कर्युं अने आत्माना आनंदनो जराक स्वाद चाख्यो त्यां तेने तेना कारणना अचिंत्य महिमानी
खबर पडी के ‘अहा आवा परिपूर्ण आनंदनुं कारण मारो आत्मा ज छे......मारा आत्मामां आवा आनंदनुं
कारण सदाय वर्ती रह्युं छे..... ने आ ज मारे उपादेय छे.’
पारिणामिकभावरूप छे, तथा ते भव्यनो परम स्वभाव होवाथी ते उपादेय छे. भव्यने तेनुं भान थाय छे
माटे ‘भव्यनो परम स्वभाव’ कह्यो. अभव्यने आवा स्वभावनुं भान थतुं नथी. भव्यनो परम स्वभाव
होवाथी आ सहजज्ञान सिवाय कांई उपादेय नथी. जेम मेरूपर्वत नीचे सोनुं छे पण ते शा कामनुं? तेम
अभव्यने पण आवो स्वभाव तो छे पण भान वगर ते शा कामनो? ‘कारण’ तो छे पण मिथ्याद्रष्टि तेनुं
अवलंबन लईने कार्य प्रगट करतो नथी. कारणना अवलंबने कार्य थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने पोताना
परमपारिणामिक स्वभावरूप जे सहजज्ञान छे ते ज उपादेय छे, ए सिवाय सम्यग्द्रष्टि बीजुं कांई उपादेय
मानता नथी. जे जीवो परम आनंदना अभिलाषी होय......जेओ आत्मार्थी होय...जेओ मोक्षार्थी
होय.....तेओ पोताना एक परम ज्ञानस्वभावने ज उपादेय करो.....ते अंर्तस्वभावनी खाणमांथी
ज सम्यग्दर्शनादि रत्नो नीकळे छे, तेथी ते ज उपादेय छे.
आ रीते ज्ञानना प्रकारोमां परम स्वभावरूप सहजज्ञानने उपादेय बताव्युं. हवे, ‘ते सहजज्ञानना