Atmadharma magazine - Ank 190
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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श्रावणः २४८पः १३ः
* आत्माने केवो भाववो–तेनुं वर्णन *
आत्माना परमस्वभावरूप सहजज्ञाननो परम महिमा बतावीने, तथा ते ज उपादेय छे–एम समजावीने, हवे
कहे छे के–
“आ सहजचिद्विलासरूपे.....स्वभाव–अनंतचतुष्टयथी जे सनाथ छे.....एवा आत्माने.... भाववो.”
आत्माना स्वभाव–अनंतचतुष्टय केवा छे? ते कहे छे–
(१) सदा सहज परम वीतराग सुखामृत
(२) अप्रतिहत निरावरण परम चित्शक्तिनुं रूप
(३) सदा अंतर्मुख एवुं स्वस्वरूपमां अविचळ स्थितिरूप सहज परम चारित्र, अने
(४) त्रणे काळे अविच्छिन्न होवाथी निकट एवी परम चैतन्यरूपनी श्रद्धा.
–आवा स्वभाव–अनंतचतुष्टयथी आत्मा सनाथ छे, अने अनाथ एवी मुक्तिसुंदरीनो ते नाथ छे; आवा
आत्माने सहजज्ञानना विलासरूपे भाववो.
अहीं जे सुख, वीर्य, चारित्र अने श्रद्धाए चतुष्टय लीधा छे ते त्रिकाळनी वात छे. आत्माने ‘सहज
चिद्विलासरूप’ कहीने ज्ञाननी वात तो पहेलां ज लीधी. अने स्वभाव अनंतचतुष्टयमां–
(१) आनंदने सदा वीतराग कह्यो,
(२) चित्शक्तिरूप बळने निरावरण अप्रतिहत कह्युं,
(३) चारित्रने सदा अंतर्मुख स्वस्वरूपमां अविचळ स्थितिरूप कह्युं, अने
(४) श्रद्धाने त्रिकाळ अविच्छिन्नरूपे सदा निकट बतावी.
–आवा स्वभाव–चतुष्टयथी जे सनाथ छे अने मुक्तिसुंदरीनो नाथ छे–एवा भगवान आत्माने
सहजचैतन्यविलासरूपे भाववो. आ ‘भावना’ ते मोक्षमार्ग छे; ‘भावना’ कहेतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे तेमां
आवी जाय छे. ने आवी भावनाथी ज भवनो अभाव थाय छे.
जुओ, आ मोक्ष माटेनी भावना! जेणे आत्मानी मोक्षदशा प्रगट करवी होय तेणे आवा आत्माने ज भाववो.
जडनी क्रियाना विलासरूपे आत्माने न भाववो; रागना विलासरूपे आत्माने न भाववो, तेमज अल्पज्ञताना विलासरूपे
आत्माने न भाववो; पण अनंत चतुष्टयसहित सहजज्ञानना विलासरूपे सदा आत्माने भाववो. सहजज्ञानना
विलासस्वरूप आत्मा सदा कारणचतुष्टय सहित बिराजी रह्यो छे, तेनी भावना करतां कार्यचतुष्टय प्रगटे छे. कारणनी
भावनाथी कार्य थाय छे. अहीं कारणरूप जे सहजज्ञान, तेना विलासनी साथे स्वभाव–चतुष्टयने भेळवीने, ते
चतुष्टयसहित आत्मानी भावना करवानुं कह्युं, तेनुं फळ मुक्ति छे.
जुओ, आ सहजचैतन्यनो विलास! आमां ज आत्मानो खरो विलास छे, आ विलासमां ज आत्मानो आनंद
छे. बहारना विलासमां तो दुःख छे, ने आत्माना विलासमां आनंद छे. चैतन्यमूर्ति आत्मानो आ त्रिकाळ विलास
अमृतमय छे, आनंदमय छे, तेमां ज आत्मानी मोज छे; माटे तेनी ज भावना भाववी–एवो संतोनो उपदेश छे.
जडनो विलास जुदो छे,
विकारनो विलास दुःखरूप छे, ने
पर्यायनो विलास क्षणिक छे;
आत्माना सहज चैतन्यनो विलास आनंदमय छे, धु्रव छे, सदा पोताथी अभिन्न छे,–माटे ते विलासरूपे
आत्मानी भावना भाववी. परम पारिणामिकभावे त्रिकाळ विलसतो आत्मा ते ज सम्यग्दर्शननुं ध्येय छे, तेना ज
आश्रये सम्यग्दर्शनादि थाय छे. आवो जे चैतन्यनो सहज विलास छे तेने कदी आवरण नथी, तेमां कोई बाधा नथी,
पीडा नथी, दुःख नथी; ते सदा निरावरण छे, निर्बाध छे, अविच्छिन्नधारारूप छे, अमृतमय छे, आनंदमय छे,
वीतरागस्वरूप छे,–अहो! आवा आत्मानी भावना ते ज धर्मात्मानुं कर्तव्य छे.
ओहो! आ भगवानना शास्त्रमां केवी अलौकिक वात भरी छे! जुओ तो खरा, आ तो भागवतशास्त्र छे. अंदर
धु्रवस्वभाव पूरा आनंदथी सदा परिपूर्ण भर्यो छे तेना उपर ज शास्त्रकार संतोए मीट मांडी छे. जेणे आवा त्रिकाळी
परम सत्नो आदर कर्यो तेने स्वप्ने पण असत्नो (–रागादि व्यवहारनो) आदर होय ज नहि.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग ते पर्याय छे, ते निश्चय मोक्षमार्ग छे; पण ते केम प्रगटे?
आत्मस्वभावना अवलंबने ते प्रगटे छे, तेथी