श्रावणः २४८पः १पः
आत्मानी धर्मकथा
ता. २९–३–प९ना रोज जलगांव (खानदेश) मां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन
आ चिदानंदस्वरूप आत्मानी धर्मकथा छे. देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे; तेणे पोताना स्वरूपने
भूलीने पूर्वे अनादिकाळमां चार गतिना अनंत भवो कर्या छे. आ देह तो जड छे, तेनामां ज्ञान नथी,
ज्ञानस्वरूप आत्मा तेनाथी भिन्न वस्तु छे. जो देह अने आत्मा एक होय तो, मोटा जाडा देहमां झाझी बुद्धि ने
नाना देहमां थोडी बुद्धि–एम होवुं जोईए, परंतु एम तो देखातुं नथी. कोईने पातळो नानो देह छतां विशेष
बुद्धि होय छे, कोईने मोटो स्थूळ देह छतां अल्प बुद्धि होय छे. आ रीते ज्ञानस्वरूप आत्मा देहथी तद्न भिन्न
वस्तु छे.
ज्ञानस्वरूप आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ने पूर्ण आनंद प्रगटवानी ताकात छे; तेनी ओळखाण करवी ते
अपूर्व पुरुषार्थ छे. ए सिवाय बहारना संयोग मळवा ते तो पूर्वना पुण्य–पापनुं फळ छे. बहारनी अनुकूळ–
प्रतिकूळ सामग्री साथे कांई धर्मनो संबंध नथी. आचार्यमहाराज कहे छेः अरे भाई! देहथी भिन्न तारा
आत्मतत्त्वने जाणवानो प्रयत्न तें पूर्वे कदी एक सेकंड पण कर्यो नथी. स्वर्गमां अनंतवार तुं गयो, ने तीव्र
दुराचारथी नरकना अवतार पण तें अनंतवार कर्या; मनुष्य ने ढोरना अवतार पण तें अनंतवार कर्या, पण
चैतन्यतत्त्वना भानवगर आत्मानी शांति तुं कदी न पाम्यो.
श्रीमद् राजचंद्र जेओ सौराष्ट्रमां थई गया, अने सात वर्षनी वये तो जेमने आत्मा पूर्वभवे क्यां हतो
तेनुं ज्ञान (जातिस्मरण) थयुं हतुं, तेओ १६ वर्षनी वये कहे छे के–
बहु पुण्य केरा पूंजथी शुभदेह मानवनो मळ्यो,
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहीं एके टळ्यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षणक्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो?
सोळ वर्षनी उमर तो देहनी अपेक्षाए छे, आत्मा तो बधाय अनादिथी अत्यारसुधी आवेला सरखा छे.
अनंता जीवो आत्मानुं भान करी करीने पूर्ण ज्ञान आनंद प्रगट करीने मुक्त थया. तेओ क्यांथी थया?
आत्मामां ताकात छे तेमांथी ज थया छे, पण आत्माने भूलीने अनादिथी चार गतिना चकरावामां जीव भमी
रह्यो छे. तेमां आवो दुर्लभ मनुष्य अवतार ने सत्समागम मळ्यो, तो हे जीव! हवे भवचक्रनो आंटो टळे एवुं
कांईक कर.
देहथी भिन्न आत्माने लक्षमां लईने श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के अरे भाई, भवचक्रमां रखडतां रखडतां तुं
आवो मनुष्य अवतार पाम्यो, अने तेमां भवभ्रमण टाळवानो उपाय जो तुं न कर तो तें शुं कर्युं? बहारमां
सुख नथी, सुख तो आत्माना स्वभावमां छे. बहारमां सुख मानतां आत्माना स्वभावनुं सुख भुलाय छे; माटे
हे जीव! आ वात तुं जराक लक्षमां तो ले.....के बहारमां सुख नथी, अंतरमां ज सुख छे. अंतरमां आत्माने
भूलीने बहारमां सुख मानतां क्षणे क्षणे भावमरण थाय छे, एटले के आत्माना गुणो क्षणेक्षणे हणाईने दुःख
ऊभुं थाय छे. ए क्षणेक्षणे थता भावमरणथी बचवा माटे ने आत्मानुं वास्तविक सुख पामवा माटे तुं विचार
करीने तारा वास्तविक स्वरूपने लक्षमां तो ले.
ज्ञानस्वरूप आत्मा संयोगोथी जुदो छे, गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगोमां पण समाधान करीने ते शांति
राखी शके छे. मान–अपमाननुं तीव्र दुःख थतां देह छोडीने (आपघात करीने) पण ते दुःखथी छूटवा मांगे छे;–