ः १६ः आत्मधर्मः १९०
एटले तेमां ए वात सिद्ध थाय छे के देह वगर पण आत्माने सुख थई शके छे, अर्थात् देहमां के संयोगमां सुख
नथी पण देहथी भिन्न अने संयोगथी भिन्न एवा आत्मस्वरूपमां सुख छे; तेनुं लक्ष करीने तेमां ठरवुं ते ज
सुखनो वास्तविक उपाय छे.
आ चिदानंदस्वरूप आत्मानी समजण केम थाय तेनी धर्मकथा छे. बहारमां लक्ष्मी के अधिकार भले हो के
कुटुंब–परिवार घणो होय,–पण तेथी आत्माने शुं लाभ थयो? श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं तेतो कहो?
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
वधवापणुं संसारनुं नरदेहने हारी जवो,
–एनो विचार अहोहो, एक पळ तमने हवो
लक्ष्मी–अधिकार के कुटुंब–परिवारना वधवाथी मारा आत्मामां कांई वध्युं के मने कांई लाभ थयो–एम
मानवुं ते तो भ्रमणा छे, तेनाथी संसार वधे छे, ने मनुष्य भव हारी जवाय छे. अरे जीवो! तमे एक क्षण तो
आनो विचार करो! केम आत्मानुं अहित थई रह्युं छे, ने केम आत्मानुं हित थाय–तेनो विचार तो करो. शुं
विचार करवो–तो कहे छे के–
हुं कोण छुं? क्यांथी थयो?
शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे, राखुं के परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिकज्ञानना सिद्धांततत्त्वो अनुभव्या.
जेम काचो चणो तुरो लागे छे ने वाववाथी ऊगे छे, तेम अज्ञानभावे जीवने आकुळताना स्वादनुं वेदन छे
ने ते चार गतिना अवतारमां रझळे छे; परंतु जेम चणाने सेकी नांखतां तेनो स्वाद मीठो लागे छे ने ते फरीने
ऊगतो नथी, तेम चिदानंदस्वरूप आत्मानुं भान करीने तेमां ठरतां आत्माने पोताना अतीन्द्रिय आनंदरसनो
स्वाद आवे छे, ने संसारमां ते फरीने भव धारण करतो नथी. माटे आ मनुष्यजीवनमां आत्मानुं भान करवानो
सत्समागमे प्रयत्न करवो जोईए. अनंतकाळथी भ्रांतिमां पडीने भ्रमण करतो जीव पोते पोताना आत्माने दुःखी
करी रह्यो छे, बीजो कोई तेने दुःख आपनार नथी. कोई माथुं कापनार होय तेनुं दुःख खरेखर आत्माने नथी.
अनेक संतमुनिओ जेओ वनजंगलमां वसता ने आत्माना ध्यानमां मस्त हता, तेओने महाउपद्रव आवी पडया–
सिंहवाघे फाडी खाधा के घाणीमां घालीने कोईए पीली नांख्यां, छतां तेओ चिदानंदस्वरूपमां लीन थईने शांतिनुं
वेदन करतां करतां केवळज्ञान पाम्या छे. माटे बहारनी प्रतिकूळता ते कांई दुःख नथी. ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा शुं
चीज छे तेनुं श्रवण–मनन करीने तेनी ओळखाणनो प्रयत्न करवो जोईए. जीवोने बीजा कार्य माटे समय मळे छे,
पण चिदानंदस्वरूप आत्मा शुं चीज छे तेनुं श्रवण–मनन करवा माटे समय लेता नथी. अरे, स्वर्गना देवो पण
स्वर्ग छोडीने आ मनुष्यलोकमां धर्मनी वात सांभळवा तीर्थंकरभगवाननी सभामां आवे छे. अत्यारे विदेहक्षेत्रे
सीमंधरादि तीर्थंकरभगवंतो बिराजे छे, तेमनी धर्मसभामां स्वर्गना ईंद्रो पण धर्मनुं श्रवण करवा माटे आवे छे,
माटे प्रल्हाद लावीने उत्साहथी चैतन्यनी वातनु्रं श्रवण करवुं जोईए ने तेनी समजणनो प्रयत्न करवो जोईए. एक
क्षण पण आत्मानुं भान करतां अनंतकाळना जन्ममरणनो अंत आवी जाय छे, ने अनादिथी कदी नहि अनुभवेल
एवी अपूर्व शांतिनुं वेदन थाय छे.
‘आत्मधर्म’ अंक १८९नुं शुद्धीपत्रक
पानुंकोलमलाईनअशुद्धशुद्ध
८२२पनिर्भावरूपे उपलब्धि थाय छे.निर्बाधरूपे उपलब्धि थाय छे.
१२–नीचेनी बीजी लाईनअंक १८१ मां छे.अंक १८२मां छे.
१६२१६, १७नं आत्मध्यात परो सौख्यंन आत्मध्यानात् परो सौख्यं