ः १८ः आत्मधर्मः १९०
छे. चैतन्यस्वरूपनी रुचि करीने एक वार पण तेनुं श्रवण करे तो अपूर्व भेदज्ञान थया विना रहे नहीं.
दिव्यध्वनिदातार भगवान तीर्थंकरपरमात्मा अत्यारे विदेहक्षेत्रेमां साक्षात् बिराजे छे. अहींथी २०००
वर्ष पहेलां कुंदकुंदाचार्य देव त्यां गया हता ने भगवाननी दिव्यवाणी सांभळी हती. (अहीं पण मंदिरमां तेनो
देखाव छे, ने अमारे सोनगढमां पण तेनी रचना छे.) विदेहथी पाछा आव्या बाद आचार्यदेवे समयसार वगेरे
शास्त्रो रच्यां छे; तेमा कहे छे के–
श्रुत–परिचित–अनुभूत सर्वने
काम–भोग–बंधननी कथा,
परथी जुदा एकत्वनी
उपलब्धि केवळ सुलभ ना. ४.
जीवोए अनादिथी राग अने तेना फळनी रुचि करी छे ने तेनो ज अनुभव कर्यो छे, पण परथी भिन्न ने
स्वभावथी एकत्वरूप एवा ज्ञानानंदस्वरूपनी रुचि के अनुभव कदी कर्यो नथी. आचार्य भगवान समयसारमां
एकत्व–विभक्त आत्मानुं स्वरूप बतावीने तेनां श्रद्धा–ज्ञान–आचरणनो उपदेश आपे छे.
अरे जीव! तारो ज्ञायक स्वभाव तो पवित्र छे ने रागादि भावो तो मलिन छे; माटे स्वभावनो उल्लास
लावीने तेनुं श्रवण कर.....राग अने रागना फळनी रुचि छोड. सर्वज्ञतानी ताकात तारा ज्ञायक स्वभावमां भरी
छे, रागमां तेवी ताकात नथी. रागना सेवनथी सर्वज्ञता के अतीन्द्रिय आनंद नहीं आवे, ज्ञायक स्वभावनी
सन्मुख थईने तेना सेवनथी ज सर्वज्ञता अने अतीन्द्रिय आनंद आवशे. जेम लींडीपीपरमां ताकात छे तेमांथी ज
चोसठपोरी तीखास प्रगटे छे, तेम आत्माना स्वभावमां ताकात छे तेमांथी ज सर्वज्ञता ने पूर्णानंद खीले छे, क्य
ांय बहारथी नथी आवता.
शुभ राग करतां करतां जाणे के आनाथी कांईक लाभ थई जशे–एम शुभरागनी रुचिमां रंगायेला जीवनुं
चित्त मिलन छे; रागनी रुचिथी रंगायेलुं तेनुं मिलन चित्त कर्मबंधननुं कारण छे, अने रागथी पार चिदानंद
स्वरूपनी रुचिनो रंग लगाडीने चित्तने चैतन्यस्वरूपमां जोडवुं ते कर्मबंधनथी छूटकारानो उपाय छे. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र ते मोक्षमार्ग छे, ‘चैतन्यस्वरूपमां चित्तने जोडवुं’ तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग
समाई जाय छे. चैतन्यमां चित्त क्यारे जोडाय? के रागनी रुचि छोडीने चैतन्यस्वरूपनी रुचि करे त्यारे; जे जीव
रागथी लाभ माने ते तेनी रुचि केम छोडे? अने जेनी रुचिथी चित्त रंगायेलुं होय तेनाथी ते केम छूटे? माटे
रागनी रुचिथी जेनुं चित्त मलिन छे ते जीव रागथी पोताना चित्तने खसेडतो नथी ने चैतन्यस्वरूपमां पोताना
चित्तने जोडतो नथी, ते जीव मलिन चित्तवाळो वर्ततो थको कर्मथी बंधाय छे. अने जे जीव पवित्र चैतन्यस्वरूपमां
चित्तने जोडीने रागथी विमुख वर्ते छे ते जीव निःसंदेहपणे कर्मोथी मुकाय छे. आ रीते, उपयोगनुं रागमां जोडाण
ते बंधनुं कारण छे ने उपयोगनुं स्वभावमां जोडाण ते मोक्षनुं कारण छे.
आत्मपंथ ते मोक्षमार्ग छे, ने मन–पंथ ते बंधमार्ग छे; उपयोगनुं आत्मस्वभावमां जोडाण थतां
मोक्षमार्ग थाय छे, अने मनना संबंधमां जोडाण थतां रागद्वेषनी उत्पत्ति थाय छे ते बंधनुं कारण छे. माटे
आचार्यदेव कहे छे के–अरे, मननो मार्ग तो दुःख करनार छे, चैतन्यमार्ग ज अमृतस्वरूप मोक्ष देनार छे. अरे
मन! मृगजळनी छाया जेवा विषयसुखोथी तुं विमुख था..... तेनाथी विरक्त थईने तारा उपयोगने चैतन्यमां
जोड. शुभ के अशुभ ए बंने मननो पंथ छे, चैतन्यनो पंथ नथी; चैतन्यना पंथमां तो वीतरागता छे, ने
वीतरागता ज मोक्षमार्ग छे.
आचार्य भगवान चैतन्यस्वभावनी सन्मुख थईने तेना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करवानो उपदेश
आपे छे. जेम कोई पुरुष आंबाना वृक्ष पासे आव्यो पण तेनी छायामां बेसीने ज संतुष्ट गयो, तो बीजो कोई
डाह्यो पुरुष तेने समजावे छे के अरे भाई! तुं आ वृक्षनी छायामां ज संतुष्ट न था, पण आ आबांनो स्वादे ले.
तेम सुखनी छाया जेवा (सुखाभास) एवा शुभमां जे संतुष्ट छे तेने आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! तुं
रागमां संतुष्ट न था, शुभना फळमां पण खरुं सुख नथी, माटे अमृतना वृक्षसमान चैतन्यना स्वभावनी
सन्मुख थईने तारा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ले. तेनाथी निःसंदेह तारा जन्म–मरणनो नाश थई जशे; आ
ज जन्ममरण मटाडवानी जडीबुटी छे.