Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 21

background image
भाद्रपदः २४८पः ११ः
चढतां चढतां ते सौ पर्वत उपर पहोंच्या; त्यां भरत महाराजा पर्वतनी शोभा नीहाळी रह्या हता
त्यारे तेमना पुरोहिते कह्युंः हे देव! आ पर्वत अनेक आश्चर्यथी भरेलो छे, आखा लोकनी शोभाने
ओळंगी जनार आ पर्वतनो महिमा एटलो ज बस छे के अहीं जगतगुरु भगवान ऋषभदेव
बिराजमान छे, तेथी आ पर्वत पण तीर्थरूप छे. अनेक नदीओ, गुफाओ अने उपवनो अहीं शोभी रह्या
छे. आ तरफ देवोनुं आगमन थई रह्युं छे.....अने आ तरफ सिंह वगेरे पण नम्रपणे भगवानना
समवसरण तरफ आवी रह्या छे. अने आ तरफ जुओ–पेलो सिंह अहिंसक होवा छतां मात्र क्रिडा खातर
ज पर्वतनी गुफामांथी एक मोटा सर्पने खेंची रह्यो छे, परंतु लांबा सर्पने खेंचवा ते असमर्थ होवाथी
पाछो तेने छोडी रह्यो छे. मुनिवरोना वासने लीधे आ पर्वतना उपवन पण मुनि समान लागे छे,–जेम
मुनि अनेक प्रकारना द्वन्द्व (शीत–उष्णवगेरे बाधाओ) सहन करे छे तेम आ उपवन अनेक प्रकारना
द्वन्द्व (पशु–पक्षीना युगल) ने धारण करे छे, जेम मुनि बधानुं कल्याण करे छे तेम आ वनप्रदेश पण
बधानुं कल्याण करे छे, जेम मुनि आश्रितोना संतापने हरे छे तेम आ वन पण आश्रितोना
गीष्मसंतापने दूर करे छे. वनमां आ तरफ मोटामोटा मुनिवरोनो समूह बिराजे छे ने तेमना पठन–
पाठनना मधुर ध्वनिथी वन रमणीय बनी रह्युं छे. वनमां सदा रहेनारा, जमीन पर सूनारा एवा
हरणो अने मुनिओना टोळां आ वनमां सदा विचरे छे, ने क्यारेय सिंह वगेरेनी भयंकर त्राडोथी वन
गाजी ऊठे छे. आ रीते आ पर्वत हंमेशा तो शांत तेमज भयंकर रहे छे, परंतु हालमां श्री जिनेन्द्र देवना
सन्निधानथी ते मात्र शांत ज छे......तेनी भयंकरता दूर भागी गई छे.
भरतजी प्रसन्नतापूर्वक बधुं अवलोकता–अवलोकता भगवानना धर्मदरबार तरफ जई रह्या छे, ने
पुरोहित तेमने कहे छेः देखिये! अहीं सिंह अने हाथीओ एक साथे बेठा छे, ने सिंह पोताना नखथी हाथीना घा
उपर प्रेमपूर्वक स्पर्श करी रह्यो छे. अने आ तरफ हरणीया पोताना बच्चां सहित सिंहनी साथे साथे ज
निर्भयपणे चारणमुनिओनी गुफामां प्रवेश करी रह्या छे. अहा! मोटुं आश्चर्य छे के पशुओनो समूह पण, जेमने
वनना भयनुं के शोभानुं कांई लक्ष नथी एवा मुनिओनी पाछळपाछळ फरी रह्यो छे. हे स्वामी! अष्टापद
नामना जीवोथी सेवित आ कैलासपर्वत, भविष्यमां ‘अष्टापद’ नामथी प्रसिद्ध थशे. (‘अष्टापद’ ए कैलासनुं
बीजुं नाम छे; “अष्टापद आदीश्वर स्वामी” अने “नमो ऋषभ कैलास पहाड”–ए रीते बंने नामोनो उल्लेख
जोवा मळे छे.)
अनेकविध रत्न–मणिओनी रंगबेरंगी प्रभाथी शोभता कैलासपर्वतनो महिमा करतां पुरोहित कहे छेः हे
स्वामी! जिनेन्द्रदेवना प्रभावे आ पर्वत पण जाणे के जिनेन्द्र समान लागे छे,–जेम जिनेन्द्रदेवनी पासे देवो
आवे छे तेम आ पर्वतनी पासे पण देवो आवे छे, जेम जिनेन्द्रदेव महान छे तेम आ पर्वत पण महान छे, जेम
जिनेन्द्रभगवान अचल (निजस्वरूपमां स्थिर) छे तेम आ पर्वत पण अचल छे, जेम जिनेन्द्र भगवानने
सिंहासन छे तेम आ पर्वतने पण सिंहासन (सिंहोनाआसनो) छे,–अर्थात् त्यां अनेक सिंहो आसन लगावीने
बेठा छे. जेम जिनेन्द्रदेवनुं शरीर शुद्ध स्फटिक समान पवित्र अने परम उदार छे, तेम आ पर्वत पण शुद्ध स्फटिक
समान निर्मळ अने उदार शरीरवाळो छे. हवे देव! आवो आ पर्वतराज–कैलास, शुद्धआत्मानी जेम आपनुं
कल्याण करनार हो!
ए रीते पुरोहितना मुखेथी पर्वतनी उत्कृष्ट शोभानुं वर्णन सांभळीने महाराज भरत अतिशय
आनंदित थया...जेनुं मन भगवानना दर्शन माटे अति उत्कंठित छे एवा भरतराज प्रसन्नचित्ते थोडाक आगळ
वध्या त्यां नजीकमां ज तेमने जिनेश्वरदेवनुं समवसरण नजरे पडयुं...... अने आश्चर्यथी हर्षपूर्वक तेमना
मुखमांथी जय जयकारना उद्गार नीकळ्‌याः ‘अहा! जय हो... ऋषभदेव भगवाननो जय हो! उपरथी थई
रहेली पुष्पवृष्टि अने दुंदुभीवाजांना अवाज उपरथी तेमणे जाणी लीधुं के त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र भगवान अहीं
समीपमां ज बिराजी रह्या छे. जरा पण परिश्रम वगर