Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १२ः आत्मधर्मः १९१
बाकीनो मार्ग पसार करीने भरत महाराज जिनेन्द्रदेवना समवसरणमंडल सुधी पहोंची गया. त्यां देवो–मानवो
ने तिर्यंचो आवीने दिव्यध्वनिना अवसरनी प्रतीक्षा करता थका बेसे छे तेथी गणधरदेव वगेरेए तेनुं
‘समवसरण’ एवुं सार्थक नाम कह्युं छे.
महाराजा भरत, १२०० पुत्रो अने बीजा परिकर सहित कैलास पर्वत उपर समवसरणमां धूलिशाल
पासे पहोंच्या.....धूलिशालने वटावीने तेमणे मानस्तंभनुं पूजन कर्युं; मानस्तंभनी चारे तरफ जिनदेवनी वाणी
समान स्वच्छ पाणीथी भरेली वावडीओ पण भरतराजे देखी. आगळ जतां जतां वनभूमिना चैत्यवृक्षमां
स्थित जिनप्रतिमाओनुं पूजन कर्युं. त्यारबाद जिनेन्द्रभगवानना जय जयकारथी व्याप्त एवी ध्वजाभूमिने
ओळंगीने वनभूमिमां आव्या त्यां सिद्धप्रतिमां संयुक्त सिद्धार्थवृक्षोनी प्रदक्षिणा करीने सिद्धभगवंतोनुं पुजन
कर्युं. जिनेन्द्रभगवाननी समीपताने लीधे जे दिव्य शोभा धारण करे छे एवा समवसरणने देखीने परम आश्चर्य
पामता थका महाराजा भरते द्वारपाळदेवोनी आज्ञा लईने भगवाननी सभामां प्रवेश कर्यो. तेनी साथेना
१२०० सुंदर राजकुमारोने देखीने देवो पण आश्चर्य पामता हता....अने ते राजकुमारो भगवानना दरबारने
देखीने आश्चर्य पामता हता.
भरते भगवान ऋषभदेवना धर्मदरबारमां समस्त जगतने स्थान देनार ‘श्रीमंडप’ देख्यो. ते
श्रीमंडपमां, जिनेन्द्र भगवानना दर्शनथी उत्पन्न थयेली अतिशय प्रीतिने लीधे जेमनां नेत्रो प्रफूल्लित थई रह्या
छे एवा बार–संघने (बार सभाना जीवोने) देख्या. स्नेहपूर्वक तेमने देखता थका भरतराजे पहेली पीठिका
उपर जईने प्रदक्षिणा करी, ते पीठिका उपर सूर्यमंडळ जेवा तेजस्वी धर्मचक्रनुं बहुमान कर्युं, तथा बीजी पीठिका
उपरनी आठ महाधजाओनुं पण सन्मान कर्युं. त्यारपछी ए विद्वान धर्मात्मा चक्रवर्तीए जेना उपर दिव्य
गंधकूटी शोभी रही छे एवी पीठिका उपर जगतगुरु परम धर्मपिता भगवान ऋषभदेवने देख्या...केवळज्ञान
अने दिव्य ध्वनि वगेरे वैभवथी अचिंत्य माहात्म्यना धारक एवा जिनेन्द्र भगवानने देखतां ज
भरतमहाराजनुं हृदय आनंदथी भराई गयुं अने भक्तिथी घूंटणभर थईने तेणे भगवानने नमस्कार कर्यां.
भरतनी साथे साथे १२०० पुत्रोए पण भगवानने नमस्कार कर्या. पिता ज्यारे ऊभा थता त्यारे तेओ पण
ऊभा थता, पिता ज्यारे वंदना करता त्यारे तेओ पण वंदना करता.–आम विनयपूर्वक भगवानना दर्शन कर्या.
त्यारबाद अष्ट द्रव्योथी भगवाननी महापूजा करी. पूजनविधि बाद भक्तिवश भरते अनेक स्तोत्रोद्वारा
भगवाननी स्तुति करीः
“हे भगवान! आप अपार गुणधारक परमात्मा छो, ने हुं तो शक्तिहीन पामर छुं, पण
महाभक्तिथी प्रेराईने आपनी स्तुति करुं छुं. हे देव! गणधरोने पण अगम्य एवा आपना अनंतगुणो
क्यां? अने मारा जेवो मंद पुरुष क्यां? परंतु हे भगवान! आपना गुणो प्राये करवामां आवेली थोडीक
भक्ति पण महान फळ देवामां समर्थ छे.....तेनी आपना गुण प्रत्येनी भक्तिथी प्रेराईने हुं आपनी
स्तुति करुं छुं. हे नाथ! ज्यारे आपने केवळज्ञान थयुं त्यारे आपना ज्ञाने लोकमर्यादा छोडी दीधी,
अर्थात् अलोकने पण जाणी लीधो. आपनी वाणीमां आवता तत्त्वो आपनी सर्वज्ञताने प्रसिद्ध करे छे.
जेम अंधकारमां मयूर जो के देखातो नथी तो पण तेना टहूकारवडे ते ओळखाई जाय छे, तेम आपनुं
आप्तपणुं (सर्वज्ञपणुं) जो के छद्मस्थने प्रत्यक्ष नथी देखातुं तो पण आपना सत्यार्थ वचनो ज आपनी
सर्वज्ञताने प्रसिद्ध करी रह्या छे. प्रभो! आपनी आत्मिक सम्पत्तिना अभ्युदयनी तो शी वात,–
बाह्यविभूति पण आश्चर्यकारी छे. प्रभो! आप हितोपदेशी छो ने मोक्षमार्गना प्रणेता छो. आपनी दिव्य
वाणी, जेओ वचन नथी बोली शकता एवा पशु–पक्षीओना पण हृदय–अंधकारने दूर करी दे छे. आपना
चरणोमां नम्रीभूत आ सुरनरोना मस्तक उपर पडती आपना चरणोना नखनी प्रभा एवी सुशोभित
भासे छे के जाणे आपनी प्रसन्नताना अंशो ज तेमना शिर पर वेराया होय! अने आपनी आ
सभाभूमि तो जाणे त्रणे जगतनी उत्तममां उत्तम वस्तुओनुं संग्रह–