Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १९१
‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’
दरेक आत्मा सिद्धपरमात्मा जेवो छे; जेवा सिद्धभगवंतो छे तेवा ज बधा आत्माओ स्वभावथी छे.
सिद्धि पामनारा अतिआसन्न भव्यजीवो पण पहेलां संसार–अवस्थामां हता....ने संसारकलेशथी
तेमनुं चित्त अशांत हतुं.....पण पछी ते आसन्नभव्यजीवो संसारकलेशथी थाकया..... अरे, आ राग
द्वेषादि कलेशनी अशांति!! एनाथी हवे छूटकारो पामीने चैतन्यनी शांतिने कई रीते साधुं?–एम तेमना
चित्तमां संसारकलेशनो थाक लाग्यो......एटले संसारथी वैराग्यपरायण थईने तेओ निजस्वरूपनी
सन्मुख वळ्‌या. आ संसार तरफना वलणमां अमारी शांति नथी, अमारी शांति अमारा चैतन्यस्वरूपमां
ज छे तेथी हवे अमे संसारथी विमुख थईने तेनाथी पाछा वळीए छीए ने चैतन्यनी सन्मुख थईने
तेमां वळीए छीए.
आ रीते, संसारथी थाकीने अने सहज वैराग्यमां परायण थई ने ते आसन्नभव्य धर्मात्माए
द्रव्यभावलिंगोने धारणा कर्या एटले के मुनिदशा प्रगट करी. अने पछी परमगुरुना प्रसादथी प्राप्त करेल
परमागमना अभ्यासथी (एटले के भावश्रुतने चैतन्यमां एकाग्र करवाना अभ्यासथी) केवळज्ञान प्रगट करीने
तेओ सिद्धि पाम्या.
जेवा आ सिद्धभगवंतो छे तेवो ज मारो आत्मा छे–आम जे नक्की करे तेने स्वभावनी
सन्मुखताथी मोक्षमार्गनी शरूआत थई जाय छे; सिद्धभगवान जेवो पोतानो आत्मस्वभाव जे नक्की करे
तेने आत्मसन्मुखताथी पोतामां सिद्धपदनो उपाय प्रगटी जाय छे. सिद्ध जेवो स्वभाव एटले के ‘कारण
समयसार’ (कारण परमात्मा) तेनो जे निर्णय करे तेने ते कारणनी सन्मुखताथी कार्य प्रगटया वगर
रहे नहीं.
श्रीमद् राजचंद्र सादी भाषामां ए वात कहे छे के–
सर्व जीव छे सिद्धसम
जे समजे ते थाय
आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! सिद्ध थवा माटे झूक तारा स्वभाव तरफ! तारा सिद्धपदनो उपाय बहारमां
नथी, सिद्ध जेवो जे तारो आत्मस्वभाव, तेमां ज तारो मोक्षमार्ग छे.–पण आवा स्वभाव तरफ कोण झूके? के
जेने संसारकलेशथी थाक लाग्यो होय....परभावोनी अशांतिथी जे थाक्यो होय, ते जीव सहज वैराग्यना वेगथी
निजस्वरूप तरफ वळीने सिद्धपदने साधे छे.
(नियमसार गा. ४७ना प्रवचनमांथी)
जि न भा व ना
हे जीव! जिनभावना विना, भीषण
नरकगतिमां तेमज तिर्यंचगतिमां तुं तीव्र दुःख
पाम्यो....माटे हवे तो तुं जिनभावना भाव,
एटले के शुद्धआत्मतत्त्वनी भावना कर.....के
जेथी तारुं संसारभ्रमण मटे.