Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः १९१
तो पछी ते मोहना फळरूप चार गतिनुं कर्तृत्व तो तेने क्यांथी होय?–आ रीते चार गतिना कर्तृत्वरहित
ज्ञानानंदस्वरूप निजआत्माने अंतरमां शोधवो–देखवो–श्रद्धवो ते शांतिनो उपाय छे. शांतिनुं स्वधाम स्वतत्त्व
ज छे. ते स्वतत्त्वना शोधन विना जगतमां बहारमां क्यांय शांति मळे तेम नथी.
अंतरमां प्रवेश करीने, चिदानंद स्वभावनो सत्कार करवो ते सम्यग्दर्शन छे. जेने रागादि भावोनो
सत्कार छे तेने चिदानंद तत्त्वनो अनादर छे. चिदानंदतत्त्वमां रागनो अभाव छे, तो राग तेनुं साधन केम
होय? राग ते साधन नथी, तेना वडे चैतन्यनी शांति पमाती नथी. उपयोगने अंतरमां वाळवो ते ज चैतन्यनी
शांतिनुं साधन छे. शांतिनुं धाम शरीर नथी, शांतिनुं धाम राग नथी, शांतिनुं धाम तो शुद्धचैतन्यरसथी भरेलुं
स्वतत्त्व छे. श्रद्धा–ज्ञान–द्वारा ते स्वतत्त्वमां प्रवेश करवो ते ज शांतिनो उपाय छे.
वनजंगलमां वसनारा......ने चैतन्यनी शांतिने साधनारा संतोए आ रचना करीने जगतने शांतिनो
उपाय प्रसिद्ध कर्यो छे.
नियमसारनी आ पांच गाथा (७७ थी ८१ने ‘पंचरत्न’ कह्या छे; आ पंचरत्नद्वारा पंचम भावस्वरूप
शुद्ध चैतन्यरत्न आचार्यदेवे ओळखाव्युं छे. शांतिनुं धाम एवुं आ शुद्धचैतन्यरत्न, तेने ओळखीने तेमां जे
वळ्‌यो ते जीव संसारथी पाछो फर्यो, एटले तेणे संसारनुं प्रतिक्रमण कर्युं ने मोक्ष तरफ प्रयाण कर्युं. जेना आश्रये
शांति अने मुक्ति थाय छे एवुं आ शुद्धचैतन्यतत्त्व ते ज निश्चयथी स्वद्रव्य छे, अने ते ज अंर्ततत्त्व होवाथी
परम उपादेय छे; एनाथी बाह्यभावो ते बधाय परद्रव्यो अने परभावो होवाथी हेय छे.
धर्मी जीव पोताना शुद्धचैतन्यतत्त्वथी बाह्य एवा कोई पण परद्रव्यनो के परभावनो कर्ता, करावनार के
अनुमोदनार थतो नथी. अंतरना शुद्धचैतन्यनो ज ते आदर करे छे, तेनुं ज तेने अनुमोदन छे. मारा
चैतन्यतत्त्वमां परद्रव्यो के परभावो छे ज नहीं–तो हुं तेनो कर्ता केम होउं?–आम जाणतो धर्मी जीव परभावोथी
पाछो वळीने निजस्वभाव तरफ झूकतो जाय छे, ए ज तेनुं निश्चय प्रतिक्रमण छे. आ वीतरागभाव छे;
सामायिक, सर्वज्ञनी परमार्थस्तुति वगेरे बधा आवश्यक (मोक्ष माटे अवश्य करवा योग्य) कार्यो तेमां समाई
जाय छे.
व्यवहारनयना आश्रये जे कोई भाव वर्णववामां आव्या छे ते खरेखर मारो स्वभाव नथी, हुं तो एक
ज्ञायकभाव छुं, ज्ञायकभाव सिवाय जे कोई संयोगी भावो छे ते बधाय मारा स्वभावथी बाह्य छे.
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने अभेद थयेली पर्याय तो ज्ञायकभावमां भळी गई, अने रागादि विकल्पो
ज्ञायकभावथी बहार रही गया. आ रीते धर्मीना अनुभवमां स्वद्रव्य अने परद्रव्यनो विभाग थई गयो छे.
आवो विभाग करीने जेणे शुद्ध स्वद्रव्यने ज उपादेय कर्युं छे एवो धर्मी जीव जेम जेम स्वभाव तरफ एकाग्र
थतो जाय छे तेम तेम तेने परद्रव्यनुं अवलंबन छूटतुं जाय छे ने परभावो छूटता जाय छे, तेमां ज प्रतिक्रमण
अने मोक्षमार्ग समाई जाय छे.
आ पांच रत्नोद्वारा आचार्यदेवे समस्त विभावपर्यायनो त्याग करावीने शुद्ध चिदानंद स्वरूपनुं ग्रहण
कराव्युं छे. आ रीते आ पंचरत्नोनुं तात्पर्य समजीने जे जीव अंतर्मुख थईने स्वतत्त्वमां चित्तने एकाग्र करे छे
अने ए सिवायना समस्त बाह्य विषयोना ग्रहणनी चिंता छोडे छे ते जीव मुक्ति पामे छे. आ रीते स्वभाव
अने विभावना भेदनो अभ्यास ते मुक्तिनुं कारण छे. आवा स्वतत्त्वनो आश्रय करवो ते ज आत्मानी रक्षा
करनार बंधु छे. चैतन्यस्वभावनो आश्रय करीने विभावोना उपद्रवथी आत्मानी रक्षा करवी ते ज साचुं
रक्षापर्व छे. विष्णुकुमारमुनिने अकंपनाचार्य आदि ७०० मुनिवरोनी रक्षानो भाव आव्यो ते धर्मना
वात्सल्यनो शुभभाव हतो, ते शुभभावथी पार एवा चिदानंद स्वभावनुं वात्सल्य पण ते वखते साथे वर्ततुं
हतुं. रागथी पण आत्मानी रक्षा करवी (भेदज्ञान करवुं) ते आत्मरक्षा छे. जेटले अंशे रागादि छे तेटले अंशे
आत्माना गुणो हणाय छे, अने ते रागादि विभावो आत्मानी शांतिमां उपद्रव करनारा छे, ते उपद्रवकारी
भावोथी आत्माने बचाववो, कई रीत बचाववो? के ते समस्त विभावोथी भिन्न पोताना शुद्ध स्वतत्त्वमां
प्रवेशीने ते उपद्रवकारी भावोथी आत्माने बचाववो ते आत्मरक्षा छे.
(श्रावण सुद १३–१४–१पना प्रवचनमांथी)