Atmadharma magazine - Ank 192
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८पः ११ः
४७. ज्ञानीने ‘क्रोधादि क्रिया’ होती नथी, एटले शुं?–शुं ज्ञान थाय एटले तत्क्षणे सर्वथा वीतरागता ज
थई जाय? ना, ए वात अहीं नथी. सामान्य क्रोधादिभाव ज्ञानी धर्मात्माने आवे ते जुदी वात छे, पण ते
वखतेय भेदज्ञानना प्रभावे तेने ज्ञान साथे ज एकतारूप परिणमन होवाथी ते खरेखर ज्ञानभावे ज परिणमी
रह्या छे, क्रोधादि साथे एकताबुद्धि तूटी गई होवाथी क्रोधादिना कर्तापणे ते वखतेय ते नथी परिणमता;–माटे
तेने क्रोधादिक्रिया नथी. अने, जेने रागमां एकत्वबुद्धि छे एवो अज्ञानी जीव, कोईक गाळ देतुं होय छतां
शुभरागथी क्षमा राखे तोपण, ते वखते य तेने क्रोधादिरूप परिणमन छे, क्रोधादिना कर्तापणे ज ते परिणमी
रह्यो छे, क्रोधादिथी पार एवा ज्ञानभावनी तेने खबर पण नथी.
४८. क्रोधादिभावो ज्ञानथी जुदां छे; एटले ज्यां ज्ञान छे त्यां क्रोधादिनुं कर्तृत्व नथी, अने ज्यां
क्रोधादिनुं कर्तृत्व छे त्यां भेदज्ञान नथी.–आम ते बंनेने भिन्नता छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते तो
ज्ञानभवनस्वरूप छे, क्रोधादिभावो ते ज्ञानभवनथी जुदां छे. त्यां जेने ज्ञानभवननो अभाव छे एटले के
जे सम्यग्दर्शनादिरूपे परिणमतो नथी, एवा अज्ञानी जीवने क्रोधादि अज्ञानभाव ज पोताना कार्यरूपे
प्रतिभासे छे, पोतानो आखोय आत्मा तेने क्रोधादिरूपे ज प्रतिभासे छे, क्रोधाथी भिन्न पोतानुं
चैतन्यस्वरूप तेने प्रतिभासतुं नथी, एटले ते अज्ञानी जीव क्रोधादिनो कर्ता छे ने ते क्रोधादि तेनुं कर्म छे.–
आवी अज्ञानीनी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे.
४९. जीव अज्ञानपणे पण मात्र पोताना क्रोधादिभावनो कर्ता थाय छे, पण पोताथी बहार एवा
देहादिना कार्यनो कर्ता तो अज्ञानपणे पण नथी. ‘हुं देहनी क्रिया करुं छुं’ एवी मान्यतारूप अज्ञानभावने ते
अज्ञानी भले करे, तोपण देहादिनी क्रियाने तो ते करी शकतो नथी, ए नियम छे.
प०. चैतन्यनी मीट चूकीने, अनादिथी शरीर उपर मीट मांडी छे के आ देह ते हुं ने देहनी क्रियाओ मारी;
छे.
प१. अहा! जंगलमां रहीने, आत्माना आनंदमां छठ्ठी–सातमी भूमिकाए झूलतां झूलतां, मुनिवरोए
आ अमृत रेडयां छे. विकारना वेगे चडेला प्राणीओने पडकार करीने ज्ञानस्वभाव तरफ पाछा वाळ्‌या छे के अरे
जीवो! पाछा वाळो...पाछा वाळो.......! ए विकार तमारुं कार्य नथी.... तमारुं कार्य तो ज्ञान छे....विकार तरफना
वेगे तमारी तृषा नहीं छीपे, माटे तेनाथी पाछा वळो..... पाछा वळो. ज्ञानमां लीनताथी ज तमारी तृषा शांत
थशे, माटे ज्ञान तरफ आवो.......रे....ज्ञान तरफ आवो!
प२. ‘हुं परनो कर्ता’ एवी जे स्वपरनी एकताबुद्धि ते तो तीव्र मिथ्यात्व छे अने अनंत
संसारदुःखनुं कारण छे, तेथी ते तो छोडवा जेवी छे ज; ते उपरांत, ज्ञानस्वरूप आत्मा कर्ता थईने
विकारने करे एवी द्रष्टि ते पण मिथ्यात्व, अने अनंत संसारदुःखनुं कारण छे, तेथी ते पण छोडवा जेवी
छे. क्षणिक विकारथी पार चैतन्यतत्त्व हुं छुं–एवी अंतरद्रष्टिवडे मिथ्यात्वनो नाश थईने अपूर्वधर्मनी
शरूआत थाय छे.
प३. भाई! तुं तो ज्ञानस्वभाव छो....ज्ञान शुं परने करे? ना; ज्ञान शुं विकारने करे?–ना. जेम
भगवान सृष्टिकर्ता नथी तेम आत्मा परनो कर्ता नथी तेमज ज्ञानस्वभावी आत्मा रागनो पण कर्ता
नथी.–छतां आवा ज्ञानस्वभावने भूलीने अज्ञानी जीव विकारमां ज आत्मानुं सर्वस्व मानतो थको तेना
कर्तापणे परिणमे छे, ने तेथी अशरणपणे संसारमां गतिगतिमां ते भटकी रह्यो छे..... एना दुःखनो
कोई पार नथी.