वखतेय भेदज्ञानना प्रभावे तेने ज्ञान साथे ज एकतारूप परिणमन होवाथी ते खरेखर ज्ञानभावे ज परिणमी
रह्या छे, क्रोधादि साथे एकताबुद्धि तूटी गई होवाथी क्रोधादिना कर्तापणे ते वखतेय ते नथी परिणमता;–माटे
तेने क्रोधादिक्रिया नथी. अने, जेने रागमां एकत्वबुद्धि छे एवो अज्ञानी जीव, कोईक गाळ देतुं होय छतां
शुभरागथी क्षमा राखे तोपण, ते वखते य तेने क्रोधादिरूप परिणमन छे, क्रोधादिना कर्तापणे ज ते परिणमी
रह्यो छे, क्रोधादिथी पार एवा ज्ञानभावनी तेने खबर पण नथी.
ज्ञानभवनस्वरूप छे, क्रोधादिभावो ते ज्ञानभवनथी जुदां छे. त्यां जेने ज्ञानभवननो अभाव छे एटले के
जे सम्यग्दर्शनादिरूपे परिणमतो नथी, एवा अज्ञानी जीवने क्रोधादि अज्ञानभाव ज पोताना कार्यरूपे
प्रतिभासे छे, पोतानो आखोय आत्मा तेने क्रोधादिरूपे ज प्रतिभासे छे, क्रोधाथी भिन्न पोतानुं
चैतन्यस्वरूप तेने प्रतिभासतुं नथी, एटले ते अज्ञानी जीव क्रोधादिनो कर्ता छे ने ते क्रोधादि तेनुं कर्म छे.–
आवी अज्ञानीनी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे.
अज्ञानी भले करे, तोपण देहादिनी क्रियाने तो ते करी शकतो नथी, ए नियम छे.
जीवो! पाछा वाळो...पाछा वाळो.......! ए विकार तमारुं कार्य नथी.... तमारुं कार्य तो ज्ञान छे....विकार तरफना
वेगे तमारी तृषा नहीं छीपे, माटे तेनाथी पाछा वळो..... पाछा वळो. ज्ञानमां लीनताथी ज तमारी तृषा शांत
थशे, माटे ज्ञान तरफ आवो.......रे....ज्ञान तरफ आवो!
विकारने करे एवी द्रष्टि ते पण मिथ्यात्व, अने अनंत संसारदुःखनुं कारण छे, तेथी ते पण छोडवा जेवी
छे. क्षणिक विकारथी पार चैतन्यतत्त्व हुं छुं–एवी अंतरद्रष्टिवडे मिथ्यात्वनो नाश थईने अपूर्वधर्मनी
शरूआत थाय छे.
नथी.–छतां आवा ज्ञानस्वभावने भूलीने अज्ञानी जीव विकारमां ज आत्मानुं सर्वस्व मानतो थको तेना
कर्तापणे परिणमे छे, ने तेथी अशरणपणे संसारमां गतिगतिमां ते भटकी रह्यो छे..... एना दुःखनो
कोई पार नथी.