कर्तापणे परिणमे छे.–आ अज्ञानीनी क्रिया छे,–के जे संसारनुं कारण छे.
जोडे छे. विकारना कर्तापणानो आ अध्यास, ज्ञानस्वभावना वारंवार अभ्यासवडे छूटी शके छे; केमके
विकारक्रिया आत्माना स्वभावभूत नथी तेथी ते छूटी शके छे.
पासे जवा जेवुं छे. एकला पराश्रयमां भमती बुद्धिने शास्त्रमां व्यभिचारिणी बुद्धि कही छे. आत्मानो
ज्ञायकस्वभाव सत्–जेमां परनो संग नथी, सती जेवो पवित्र–जेमां विकारी परभावनी छांया पण
नथी,–एवा स्वभावनो संग छोडीने जे विकारना संगमां जाय छे ते जीव बर्हिद्रष्टि–अज्ञानी थयो थको
क्रोधादिरूपे परिणमे छे.
विनाकारण सतीने तरछोडी.....तेम ‘पवन’ जेवो चंचळ अज्ञानी जीव अनादिथी ज्ञप्ति–क्रियारूप सतीने
तरछोडीने विकारनो कर्ता थाय छे.....तेने श्री गुरु समजावे छे के अरे मूढ! आ विकारक्रिया तारी नथी, तारी तो
ज्ञप्तिक्रिया ज छे, ते ज तारा स्वभावभूत छे.....माटे तेमां तन्मय था अने विकारनुं कर्तृत्व छोड.–श्री गुरुना
उपदेशथी आ प्रमाणे भेदज्ञान थतांवेंत जीव पोतानी स्वभावभूत ज्ञप्तिक्रियारूपे परिणमे छे, ने विभावभूत
एवी विकारक्रियाना कर्तापणानो त्याग करे छे.
न आवे! अरे, मांदो होय ने मेसुब न पचे तो छेवट दाळभात पण खाय. तेम आ तत्त्व समजीने
साक्षात् भेदज्ञानरूप परिणमवुं ते तो मेसुबना भोजन जेवुं छे–तेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे
छे; ने एटलुं झट न थई शके तो, तेनी भावना राखीने ‘आ करवा जेवुं छे’ एटलुं लक्ष बांधवुं ते पण
दाळभात जमवा जेवुं छे, तेनाथी पण चैतन्यने पोषण मळी रहेशे.–पण आनाथी उलटुं मानवुं ते तो
भूंडनो खोराक आरोगवा जेवुं छे. हे भाई, संतो तने आत्मानुं साचुं भोजन जमाडे छे–के जेना स्वादथी
तने अतीन्द्रिय आनंदरसनो अनुभव थशे–माटे एक वार तेनो रसियो था.....ने जगतना बीजा रसने
छोड!
परिणमे छे, तेथी ते क्रोधादिनो कर्ता छे, अने ते क्रोधादि तेनुं कर्म छे. तेना आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं फळ
संसार छे; एटले अज्ञानीनी क्रिया संसारने माटे ‘सफळ’ छे,–ते क्रिया संसाररूपी फळ देनारी छे, पण
मोक्षने माटे ते निष्फळ छे.
स्वभाव नथी.–आवा भानमां धर्मी जीव पोताना ज्ञानभावरूपे ज परिणमे छे,–अज्ञानवेपाररूप क्रोधादिरूपे ते
परिणमतो नथी.