Atmadharma magazine - Ank 192
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः १९२
छे–एम नथी, पण तेने पोताने अज्ञानभावथी विकारनो कर्ता थवानी टेव पडी गई छे तेथी ते विकारना
कर्तापणे परिणमे छे.–आ अज्ञानीनी क्रिया छे,–के जे संसारनुं कारण छे.
४१. जेम गाडानुं धोंसरूं उपाडवा टेवायेलो बळद, धोंसरूं ऊंचुं थतां ज त्यां पोतानी डोक नांखे छे, तेम
विकारना कर्तापणाथी टेवायेलो अज्ञानी विकारमां एकता करीने परिणमतो थको संसाररूपी धोंसरामां पोताने
जोडे छे. विकारना कर्तापणानो आ अध्यास, ज्ञानस्वभावना वारंवार अभ्यासवडे छूटी शके छे; केमके
विकारक्रिया आत्माना स्वभावभूत नथी तेथी ते छूटी शके छे.
४२. शास्त्रोमां निश्चयनुं अने व्यवहारनुं बधुं कथन छे, त्यां अनादिना व्यवहारथी टेवाएलो मूढ
अज्ञानी जीव, निश्चयने तरछोडीने एकान्त व्यवहारने पकडी ल्ये छे,–ए सती स्त्रीने तरछोडीने वेश्या
पासे जवा जेवुं छे. एकला पराश्रयमां भमती बुद्धिने शास्त्रमां व्यभिचारिणी बुद्धि कही छे. आत्मानो
ज्ञायकस्वभाव सत्–जेमां परनो संग नथी, सती जेवो पवित्र–जेमां विकारी परभावनी छांया पण
नथी,–एवा स्वभावनो संग छोडीने जे विकारना संगमां जाय छे ते जीव बर्हिद्रष्टि–अज्ञानी थयो थको
क्रोधादिरूपे परिणमे छे.
४३ सती अंजनाना पति पवनकुमारे २२–२२ वर्ष सुधी तेनी सामे जोयुं नहि, तेने तरछोडी...पण
सतीना मनमां पतिना आदर सिवाय बीजो विचार नथी. अंते पवनकुमारने पस्तावो थाय छे केम मे
विनाकारण सतीने तरछोडी.....तेम ‘पवन’ जेवो चंचळ अज्ञानी जीव अनादिथी ज्ञप्ति–क्रियारूप सतीने
तरछोडीने विकारनो कर्ता थाय छे.....तेने श्री गुरु समजावे छे के अरे मूढ! आ विकारक्रिया तारी नथी, तारी तो
ज्ञप्तिक्रिया ज छे, ते ज तारा स्वभावभूत छे.....माटे तेमां तन्मय था अने विकारनुं कर्तृत्व छोड.–श्री गुरुना
उपदेशथी आ प्रमाणे भेदज्ञान थतांवेंत जीव पोतानी स्वभावभूत ज्ञप्तिक्रियारूपे परिणमे छे, ने विभावभूत
एवी विकारक्रियाना कर्तापणानो त्याग करे छे.
४४. जुओ, आ जमण! जेम मोटा उत्सवमां मेसुब वगेरे जमण पीरसाय छे तेम अहीं मोक्षना
महोत्सवमां संतो आखा जगतने सागमटे आमंत्रीने भेदज्ञानना अपूर्व जमण पीरसे छे.–कोण जमवा
न आवे! अरे, मांदो होय ने मेसुब न पचे तो छेवट दाळभात पण खाय. तेम आ तत्त्व समजीने
साक्षात् भेदज्ञानरूप परिणमवुं ते तो मेसुबना भोजन जेवुं छे–तेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे
छे; ने एटलुं झट न थई शके तो, तेनी भावना राखीने ‘आ करवा जेवुं छे’ एटलुं लक्ष बांधवुं ते पण
दाळभात जमवा जेवुं छे, तेनाथी पण चैतन्यने पोषण मळी रहेशे.–पण आनाथी उलटुं मानवुं ते तो
भूंडनो खोराक आरोगवा जेवुं छे. हे भाई, संतो तने आत्मानुं साचुं भोजन जमाडे छे–के जेना स्वादथी
तने अतीन्द्रिय आनंदरसनो अनुभव थशे–माटे एक वार तेनो रसियो था.....ने जगतना बीजा रसने
छोड!
४प. चैतन्यस्वरूप आत्मा तो पोतानी सहज उदासीन ज्ञानअवस्थारूपे थवाना स्वभाववाळो
छे....पण अज्ञानीजीव पोतानी ते अवस्थानो त्याग करीने, ज्ञानथी विरुद्ध एवा क्रोधादि अज्ञानभावरूपे
परिणमे छे, तेथी ते क्रोधादिनो कर्ता छे, अने ते क्रोधादि तेनुं कर्म छे. तेना आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनुं फळ
संसार छे; एटले अज्ञानीनी क्रिया संसारने माटे ‘सफळ’ छे,–ते क्रिया संसाररूपी फळ देनारी छे, पण
मोक्षने माटे ते निष्फळ छे.
४६. धर्मात्मा जाणे छे केः जीवन वखते, मरण वखते, के परलोकमां, सर्वत्र मने मारो आत्मा ज शरण
छे; मारो आत्मा सहज उदासीन ज्ञानअवस्थारूप परिणमवाना स्वभाववाळो छे, एनाथी बीजो कोई मारो
स्वभाव नथी.–आवा भानमां धर्मी जीव पोताना ज्ञानभावरूपे ज परिणमे छे,–अज्ञानवेपाररूप क्रोधादिरूपे ते
परिणमतो नथी.