Atmadharma magazine - Ank 192
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 17

background image
आसोः २४८पः १३ः
६२. धर्मात्मा तो ज्ञानस्वभाव उपरनी द्रष्टिथी कर्मना संबंधनो प्रवाह तोडी नांखे छे; तेमनी अहीं वात
नथी, अहीं तो अज्ञानीनी वात छे. अज्ञानीनी द्रष्टि कर्म उपर छे, ज्ञान उपर नथी,–एटले जे नवुं कर्म बंधाय छे
तेने फरीने पण ते (पोताना अज्ञानभावने लीधे) अज्ञाननुं निमित्त बनावे छे. आ रीते तेने कर्म साथे
निमित्त–नैमित्तिक संबंधनो प्रवाह अज्ञानभावने लीधे चाल्या ज करे छे; अज्ञानभाव चालु राखे तेनी आ वात
छे. जे जीव भेदज्ञान प्रगट करीने अज्ञानने दूर करे छे तेने तो कर्म साथेनो निमित्त–नैमित्तिकसंबंध पण तूटी
जाय छे.
–आ रीते अज्ञान ज संसारनुं मूळ छे एम आ गाथाओमां बताव्युं.ाा ६९–७०ाा
६३. हवे, अज्ञानजनित कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति ते ज संसारनुं मूळ छे–एम जाणीने, जेने तेनाथी छूटकारानी
धगश जागी छे एवो शिष्य विनयपूर्वक पूछे छे के प्रभो! अज्ञानजनित आ कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अभाव क्यारे
थाय? आत्माने दुःख देनारी ने बंधन करनारी एवी आ प्रवृत्ति क्यारे छूटे? शुं करवाथी आ दुःखरूप प्रवृत्तिनो
अंत आवे?–तेनो उत्तर आचार्यदेव हवेनी गाथामां कहेशे. (चालु)
(१०)
(नियमसार गाथा १४)
प्रवचनमां नियमसारनी भावभीनी शरूआत
करतां गुरुदेवे कह्युं हतुं केः अहा! भगवान
कुंदकुंदाचार्यदेव आ शास्त्र ‘निजभावना’ अर्थे रचे छे.
एटले श्रोताए पण निजभावना अर्थे आ शास्त्र
श्रवण करवा योग्य छे. आ शास्त्रना वक्ता अने
श्रोता बंनेनुं तात्पर्य ‘निजभावना’ करवानुं छे. हे
श्रोताओ! आ शास्त्रनी गाथाए–गाथाए दर्शावेला
शुद्ध निजतत्त्वने जाणीने वारंवार तेनी भावना
करजो....एवी निजात्मभावनाथी अवश्य मोक्षमार्ग
अने तेना फळनी प्राप्ति थशे. खरेखर, आचार्यदेवे आ
नियमसार द्वारा आत्मार्थी जीवोने शुद्धरत्नत्रयरूपी
‘नियमसार’ नी भेट आपी छे.