ः १४ः आत्मधर्मः १९२
आचार्य भगवान छेल्ले कहे छे के आ नियमसारशास्त्र में निजभावना अर्थे रच्युं छे. परमस्वभावी
एवा शुद्ध निज आत्मतत्त्वनो घणाघणा प्रकारे महिमा करीने आचार्यदेवे आ शास्त्रमां तेनी भावनानी धून
मचावी छे. शुद्धआत्मानी भावनानुं जेवुं जोसदार कथन आ शास्त्रमां छे तेवुं ज अंर्तपरिणमन जेमना
आत्मामां वर्ती रह्युं छे–एवा वीतरागी सन्तोनुं आ कथन छे.
शास्त्रनुं तात्पर्य ‘निज भावना’ छे; एटले छ द्रव्योनुं के विभावपर्यायोनुं कथन आवे त्यां पण तेने
जाणीने भावना तो निजतत्त्वनी ज करवानी छे. परथी अने विभावोथी भिन्न एवा निजतत्त्वने ज पोतानी
निर्मळ पर्यायोना कारणरूपे एटले के कारणपरमात्मारूपे भाववो. तेनी भावनाथी मोक्षमार्गरूप कार्य थई जाय
छे. आ संबंधी घणुं विवेचन अगाउ आवी गयुं छे.
जीव उपयोगस्वरूप छे. ते उपयोगनी पर्यायोना प्रकार वर्णवीने आचार्यदेव जीवनुं स्वरूप ओळखावे छे.
ज्ञानउपयोगना प्रकारनुं वर्णन पुरुं थई गयुं छे; दर्शनउपयोगनी स्वभावपर्यायनुं वर्णन थई गयुं छे अने हवे
१४मी गाथामां तेनी विभावपर्यायो जणावे छे. ए रीते ‘उपयोग’ ना बधा प्रकारोनुं वर्णन पूरुं करीने पछी
पर्यायना भेदो कहेशे.
(गाथा १४)
चक्षु, अचक्षु, अवधि–
त्रण दर्शन विभाविक छे कह्यां;
निरपेक्ष, स्वपरापेक्ष
ए बे भेद छे पर्यायना.
केवळदर्शन तो स्वभावपर्याय छे; चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन ने अवधिदर्शन ए त्रणे विभावदर्शन छे,
पर्यायो बे प्रकारनी होय छे–एक निरपेक्ष अने बीजी स्व–परनी अपेक्षावाळी.
गाथा १० थी १३ सुधी उपयोगना प्रकारनुं जे वर्णन कर्युं ते पण पर्यायो ज हती, तेमां जे
स्वभावउपयोग हता ते तो निरपेक्षपर्याय हती, अने मतिज्ञानादि जे विभावउपयोग हता ते स्व–परअपेक्षित
पर्याय हती. परंतु तेमां तो ज्ञान, दर्शन अने श्रद्धानी पर्यायोनी ज वात हती. हवे आखा द्रव्यनी स्वभावपर्याय
अने विभावपर्याय बताववा माटे आ गाथाथी तेना भणकारा शरू कर्या छे. पंदरमी गाथामां टीकाकार
‘कारणशुद्ध पर्याय’ ने खुल्ली करशे.
दर्शनउपयोग तो सामान्य प्रतिभासरूप छे; विभावज्ञाननी जेम विभावदर्शनमां ‘सम्यक्’ अने
‘मिथ्या’ एवा बे प्रकारो नथी. विभावज्ञानना तो सात प्रकार हता, त्यारे विभावदर्शनमां तो त्रण ज प्रकार
छे–चक्षु, अचक्षु अने अवधि. चक्षुइन्द्रियना विषयने जाणतां पहेलां चक्षुदर्शन थाय छे, चक्षु सिवायनी
ईंद्रियोनाके मनना विषयने जाणता पहेलां अचक्षुदर्शन थाय छे. अवधिज्ञानना उपयोग पहेलां
अवधिदर्शनउपयोग थाय छे. परंतु मनःपर्ययज्ञाननी पहेलां मनःपर्यय नामनो कोई दर्शनउपयोग होतो नथी.
आ रीते विभावदर्शनउपयोगना त्रण प्रकार छे. स्वभावदर्शनउपयोगना कारण अने कार्य एवा बे प्रकारोनुं
वर्णन पूर्वे थई गयुं छे.
आ रीते जीवना लक्षणभूत ज्ञान अने दर्शन उपयोगना समस्त प्रकारोनुं वर्णन कर्युं. हवे ‘पर्याय’ नी
व्याख्या तथा तेना बे प्रकारो बतावीने पछी पंदरमी गाथामां जीवद्रव्यनी पर्यायनुं अद्भुत वर्णन करशे.
(अत्यार सुधी ‘उपयोगगुण’ नी कारण अने कार्यपर्यायोनुं वर्णन हतुं. हवे ‘जीवद्रव्य’ नी पर्यायोनुं वर्णन
आवशे.)
पर्याय एटले शु? के ‘परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्य्यायः’ अर्थात् जे सर्व तरफथी भेदने पामे
ते पर्याय छे. पर्यायना बे प्रकारो–एक स्वभावपर्याय अने बीजी विभावरूप अशुद्धपर्याय.
तेमां, स्वभावपर्याय छए द्रव्यने होय छे, ते अर्थ पर्यायरूप छे, वाणी अने मनथी अगोचर छे, अति
सूक्ष्म छे, आगमप्रमाणथी स्वीकारवा योग्य छे अने छ प्रकारनी वृद्धि–हानि सहित छे. अहीं जीवनो अधिकार
होवाथी जीवना गुणपर्यायनुं वर्णन मुख्य छे, एटले छ द्रव्योना गुण–पर्यायोनो विस्तार अहीं नथी कर्यो. जीव
सिवायना