कहेतां ‘अशुद्ध गुणो’ के ‘विभावगुणो’ कह्या छे, ने ‘अशुद्धपर्यायो’ मां तो व्यंजनपर्यायोने ज लीधी
छे,–एवी आ शास्त्रनी शैली छे.
पर्यायो होवा छतां. अशुद्धता होवा छतां.....ए बधाथी रहित एवा शुद्ध जीवतत्त्वने ज हुं सदा भावुं छुं,
केमके तेनी ज भावनाथी सकळ अर्थनी (मोक्षनी) सिद्धि थाय छे. पर्यायमां अनेकविध विभाव होवा
छतां ते सर्वेथी जे रहित छे एवा शुद्ध निजतत्त्वने मारा हृदयमां बिराजमान कारणपरमात्माने हुं भजुं
छुं, अहीं धर्मात्माने संबोधीने मुनिराज कहे छे के हे भव्य शार्दूल! तारा हृदयमां तुं जे कारणपरमात्माने
भजी रह्यो छे तेने ज उग्रपणे भज. जेनां भजनथी सम्यग्दर्शन आदि ‘कार्य’ थयुं ते ज ‘कारण’ मां
लीन थईने तेने ज तुं भज!–अमे पण एने ज भजीए छीए......ने तुं पण शीघ्रपणे तेने ज भज. एना
भजनथी मुक्ति थशे.
परम शुद्ध स्वभावी एवो ‘कारणआत्मा’ पण बिराजी रह्यो छे–तो हवे मुमुक्षु एवा उत्तम पुरुषोए शुं करवुं?
ते कहे छे; पर्यायमां परभावो होवा छतां, उत्तम पुरुषोना हृदयकमळमां तेनी भावना नथी, उत्तम पुरुषोना
हृदयमां एटले के साधक धर्मात्माओनी द्रष्टिमां तो सदाय शुद्ध एवो भगवान कारणआत्मा ज शोभी रह्यो छे.
विभाव उपर ज्ञानीनी द्रष्टि नथी, कारणस्वभाव उपर ज तेनी द्रष्टि छे; तेनी निर्मळ पर्याय अंतर्मुख थईने
कारणस्वभावमां घूसी गई छे एटले ते धर्मीना हृदयमां शुद्ध कार्यपरिणित शुद्ध कारणपरमात्मानी साथे
निजानंदनी केली करे छे.
धर्मात्माना हृदयमां तो कारणपरमात्मा ज शोभे छे, तेना हृदयमां विभावनुं स्थान नथी, विभावोनी भावना
नथी.
विकारीकार्य थाय छे. ज्ञानीने ज तेनुं लक्ष छे, तेथी कह्युं के उत्तम पुरुषोना हृदयकमळमां कारणआत्मा ज शोभे छे.
खरेखर कारणआत्माने भजनारा धर्मात्माओ ज जगतमां उत्तम पुरुषो छे. तेओ पोतानी परिणतिने अंतरमां
वाळीने कारणस्वभावने अनुसरता थका सम्यग्दर्शनादि उत्तम कार्यरूपे परिणमे छे.
पराक्रमने संभाळ! अंतरमां कारणपरमात्मानी भावना करवी तेमां ज तारुं परम पराक्रम छे.....विभावोनी
भावनामां वीर्यने अटकावी देवुं ए तो दीनता छे. जेम वनमां वसनारो सिंह निर्भयपणे पोतानी क्रीडामां मस्त
रहे छे, तेम हे भव्योत्तम शार्दूल! तुं जगतथी उदासीन निर्भय–