Atmadharma magazine - Ank 192
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८पः १पः
अन्य पांच अजीव द्रव्योना गुण–पर्यायनुं वर्णन अजीव–अधिकारमां कर्युं छे.
नर, नारक, मनुष्य के देवरूप व्यंजनपर्यायो ते जीवनी अशुद्धपर्यायो छे. जो के मतिज्ञानादि
अर्थपर्यायो पण जीवनी अशुद्ध–विभावपर्यायो छे, परंतु अहीं ते अर्थपर्यायोने ‘अशुद्ध पर्याय’ न
कहेतां ‘अशुद्ध गुणो’ के ‘विभावगुणो’ कह्या छे, ने ‘अशुद्धपर्यायो’ मां तो व्यंजनपर्यायोने ज लीधी
छे,–एवी आ शास्त्रनी शैली छे.
जीवमां विभावपर्यायो होवा छतां तेमने एक बाजु राखीने (एटले के अभूतार्थ करीने) भावना
तो शुद्ध निजतत्त्वनी ज करवानी छे. तेथी टीकाकार मुनिराज कहे छे के, परभाव होवा छतां.....विभाव
पर्यायो होवा छतां. अशुद्धता होवा छतां.....ए बधाथी रहित एवा शुद्ध जीवतत्त्वने ज हुं सदा भावुं छुं,
केमके तेनी ज भावनाथी सकळ अर्थनी (मोक्षनी) सिद्धि थाय छे. पर्यायमां अनेकविध विभाव होवा
छतां ते सर्वेथी जे रहित छे एवा शुद्ध निजतत्त्वने मारा हृदयमां बिराजमान कारणपरमात्माने हुं भजुं
छुं, अहीं धर्मात्माने संबोधीने मुनिराज कहे छे के हे भव्य शार्दूल! तारा हृदयमां तुं जे कारणपरमात्माने
भजी रह्यो छे तेने ज उग्रपणे भज. जेनां भजनथी सम्यग्दर्शन आदि ‘कार्य’ थयुं ते ज ‘कारण’ मां
लीन थईने तेने ज तुं भज!–अमे पण एने ज भजीए छीए......ने तुं पण शीघ्रपणे तेने ज भज. एना
भजनथी मुक्ति थशे.
भजन कहो के भावना; आ निजतत्त्वनी ज भावना करवा जेवी छे. अहा, जुओ तो खरा आ भावना!
आवी आतमभावना भावतां जीव केवळज्ञान पामे छे.
*
जुओ, संसारी जीवोने पर्यायमां पुण्य–पाप वगेरे विकार छे, मतिज्ञान वगेरे अधूरी दशा छे, अने
मनुष्यत्व वगेरे अशुद्ध आकृति (विभाव व्यजंन पर्याय) छे.–आ त्रणे प्रकारना परभावो छे, अने तेनी सामे
परम शुद्ध स्वभावी एवो ‘कारणआत्मा’ पण बिराजी रह्यो छे–तो हवे मुमुक्षु एवा उत्तम पुरुषोए शुं करवुं?
ते कहे छे; पर्यायमां परभावो होवा छतां, उत्तम पुरुषोना हृदयकमळमां तेनी भावना नथी, उत्तम पुरुषोना
हृदयमां एटले के साधक धर्मात्माओनी द्रष्टिमां तो सदाय शुद्ध एवो भगवान कारणआत्मा ज शोभी रह्यो छे.
विभाव उपर ज्ञानीनी द्रष्टि नथी, कारणस्वभाव उपर ज तेनी द्रष्टि छे; तेनी निर्मळ पर्याय अंतर्मुख थईने
कारणस्वभावमां घूसी गई छे एटले ते धर्मीना हृदयमां शुद्ध कार्यपरिणित शुद्ध कारणपरमात्मानी साथे
निजानंदनी केली करे छे.
जुओ, आ उत्तम पुरुषोनुं हृदय! जेना हृदयमां विभावनी भावना छे, जेनी परिणति विभाव साथे केलि
करे छे ते पुरुष उत्तम नथी, संसारमां भले ते गमे तेवो मोटो गणातो होय पण धर्ममां ते उत्तम नथी. उत्तम
धर्मात्माना हृदयमां तो कारणपरमात्मा ज शोभे छे, तेना हृदयमां विभावनुं स्थान नथी, विभावोनी भावना
नथी.
अज्ञानीने पण ‘कारणआत्मा’ छे तो खरो, पण तेने तेनुं लक्ष नथी, तेनी परिणति अंतर्मुख थईने ते
कारणनी साथे केली नथी करती, एटले तेने ते शुद्ध कारणअनुसार कार्य नथी थतुं पण परने अनुसरीने
विकारीकार्य थाय छे. ज्ञानीने ज तेनुं लक्ष छे, तेथी कह्युं के उत्तम पुरुषोना हृदयकमळमां कारणआत्मा ज शोभे छे.
खरेखर कारणआत्माने भजनारा धर्मात्माओ ज जगतमां उत्तम पुरुषो छे. तेओ पोतानी परिणतिने अंतरमां
वाळीने कारणस्वभावने अनुसरता थका सम्यग्दर्शनादि उत्तम कार्यरूपे परिणमे छे.
मुनिराज कहे छे के अमारा संपूर्ण कार्यनी सिद्धि माटे अमे आ कारणपरमात्माने ज सदाय भजीए
छीए......अने हे भव्य शार्दूल! तुं पण तेने ज भज. है भव्यरूपी शार्दूलसिंह! तारुं पराक्रम तो जो! तुं तारा
पराक्रमने संभाळ! अंतरमां कारणपरमात्मानी भावना करवी तेमां ज तारुं परम पराक्रम छे.....विभावोनी
भावनामां वीर्यने अटकावी देवुं ए तो दीनता छे. जेम वनमां वसनारो सिंह निर्भयपणे पोतानी क्रीडामां मस्त
रहे छे, तेम हे भव्योत्तम शार्दूल! तुं जगतथी उदासीन निर्भय–