आसोः २४८पः ७ः
२०. हुं एक चैतन्यस्वभावी तत्त्व, अने विकारी लागणीओ अनेक प्रकारनी; तो मारो एक
चैतन्यभाव, अनेकविध विकारी लागणीओनो कर्ता कर्म होय? माटे एक चैतन्यस्वभावी एवा मारे,
अनेकविध क्रोधादिभावो साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.–आम जाणतो धर्मीजीव क्रोधादि विकारनो कर्ता थतो
नथी.
२१. ज्ञानने अने क्रोधादिने एकमेकपणे मानतो थको अज्ञानी जीव एम माने छे के हुं एक चैतन्य तो
कर्तां छुं अने आ क्रोधादि अनेक भावो मारुं कर्म छे–आ रीते ते अज्ञानीने विकार साथे कर्ताकर्मनी जे प्रवृत्ति
अनादिथी चाली आवे छे, तेनो नाश कई रीते थाय? तेनी आ वात छे.
२२. *क्षणिकविकारनी कर्तृत्वबुद्धिमां त्रिकाळी चिदानंद स्वभावनो अनादर थाय छे, ते अनंतो क्रोध छे;
* चैतन्यनुं स्वामीत्व चूकीने जडनुं ने विकारनुं स्वामीत्व मान्युं ने तेना कर्तापणानो अहंकार कर्यो, ते
ज अनंतुं मान छे.
* सरल चैतन्यस्वभावने वक्र करीने विकारमां जोडयो ते अनंती वक्रता–माया छे.
* जे पोताना चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे एवा परना ने विकारना ग्रहणनी बुद्धि ते ज अनंतो लोभ
छे.
–आ रीते अज्ञानभावमां अनंतानुबंधी क्रोध–मान–माया–लोभनुं सेवन छे, ते ज अनंत संसारनुं मूळ
छे.
२३. भेदज्ञान थतां वेंत ज ते अज्ञाननो नाश थाय छे, ने अनंत संसारनुं मूळ छेदाई जाय छे, एटले ते
जीव अल्पकाळमां जरूर मोक्ष पामे छे. एवुं भेदज्ञान केम थाय छे तेनी आ वात छे.
२४. अनंता जीवो ने अजीव पदार्थो जगतमां स्वयमेव सत् अनादिअनंत छे; ते दरेक पदार्थ स्वभावथी
ज पोतपोताना कार्यरूपे परिणमे छे; पदार्थमां द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ छे एटले तेमां तो कांई नवुं करवापणुं छे
नहि; नवुं कार्य पर्यायमां थाय छे. ते पर्यायनो कर्ता पदार्थ पोते छे. हवे अहीं अज्ञानी कर्ता थईने शुं करे छे ने
ज्ञानी कर्ता थईने शुं करे छे ते वात छे.
२प. आखा चैतन्यस्वभावने आवरीने, तेना अस्तित्वने भूलीने, क्षणिक क्रोधादि ते ज हुं– एवी
छे.
२६. आत्मा तो स्वपरप्रकाशक चैतन्यप्रकाशी सूर्य छे, अने विकार तो अंधकार समान छे. चैतन्यसूर्य
विकाररूपी अंधकारनो कर्ता केम होय? जेम सूर्यने अने अंधकारने कदी एकता होय नहि तेमा ज्ञानने अने
विकारने कदी एकमेकपणुं नथी.
२७. विकार तो चैतन्यस्वभावथी बहिरंग छे; चैतन्यनुं अंतरंग तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे.
आवा चैतन्यमां अंतर्मुख थईने ‘ज्ञान ते ज हुं’ एवुं भान करतां ज्यां भेदज्ञानज्योति प्रगटी, त्यां ते
ज्ञानज्योति कोई विकारने आधीन थती नथी, तेमां आकुळता नथी पण आनंदता छे, धीरता छे, उदारता
छे. ज्ञानज्योति एवी उदार छे के आखा जगतने जाणवा छतां तेमां संकोच नथी थतो, अने एवी धीर छे
के गमे तेवा संयोगने जाणवा छतां ते पोताना ज्ञानभावथी च्यूत थती नथी; विकारने जाणवा छतां पोते
विकाररूप थती नथी.