Atmadharma magazine - Ank 192
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः १९२
आवी ज्ञानज्योति विकारना कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिने दूर करी नांखे छे. रागने के परने करवानो तेनो स्वभाव नथी,
पण जगतना बधा पदार्थोने जाणवानो तेनो स्वभाव छे.
आवी ज्ञानज्योति प्रगटे ते अपूर्व मंगळ छे.
आ रीते ज्ञानज्योतिना प्रकाशनवडे आचार्यदेवे आ अधिकारनुं मंगलाचरण कर्युं.
२८. हवे अज्ञानी जीवनी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति केवी होय छे? ते वात बे गाथामां समजावे छेः–
आत्मा अने आस्रवतणो ज्यां भेद जीव जाणे नहि,
क्रोधादिमां स्थिति त्यां लगी अज्ञानी एवा जीवनी. ६९.
जीव वर्ततां क्रोधादिमां संचय करमनो थाय छे,
सहु सर्वदर्शी ए रीते बंधन कहे छे जीवने. ७०.
अर्थः– जीव ज्यां सुधी आत्मा अने आस्रव–ए बंनेनां तफावत अने भेदने जाणतो नथी त्यां सुधी ते
अज्ञानी रह्यो थको क्रोधादिक आस्रवोमां प्रवर्ते छे; क्रोधादिकमां वर्तता तेने कर्मनो संचय थाय छे. खरेखर, आ
रीते जीवने कर्मोनो बंध सर्वज्ञदेवोए कह्यो छे.
जुओ, सर्वज्ञदेवनी साक्षी आपीने आचार्यदेव वात करे छे.
२९. आत्मा परथी तो अत्यंत जुदो ज छे; एटले परनी साथे तो कर्ताकर्मपणुं, अज्ञानी माने तो पण,
थई शकतुं नथी. हवे अहीं अंदरना भावनी वात छे. चिदानंदस्वभावने भूलेलो अज्ञानी जीव, क्रोधादि आस्रव
भावोमां तन्मयपणे वर्ततो थको तेनो कर्ता थईने कर्म बांधे छे.
३०. “जेम ज्ञान हुं छुं, तेम क्रोधादि हुं छुं”–ए रीते ज्ञान अने क्रोधने एकमेकपणे मानीने
निःशंकपणे क्रोधादिमां पोतापणे वर्ते छे, ते अज्ञानी जीव मोहरूपे परिणमतो थको नवां कर्मबंधनमां
निमित्त थाय छे.
३१. खरेखर ज्ञान तो स्वभावभूत छे एटले ज्ञानक्रिया तो पोतानी ज छे; अने क्रोधादि तो
परभावभूत छे तेथी ते क्रोधादिनी क्रिया निषेधवामां आवी छे. परंतु, ज्ञानक्रिया अने क्रोधादिक्रिया
वच्चेना आवा तफावतने नहि जाणनारो अज्ञानी जीव ज्ञानीने जेम क्रोधादिनो पण कर्ता थतो थको, नवां
कर्मोने बांधे छे.
३२. ज्ञान तो स्वभावभूत छे, तेथी ज्ञानमां निःशंकरूपे पोतापणे वर्तवुं ते तो यथार्थ छे; ‘ज्ञान
ते ज हुं’ एवी जे ज्ञानक्रिया, तेमां विकल्पनो आश्रय जरापण नथी; ते ज्ञानक्रिया तो आत्माना
स्वभावभूत छे, एटले तेनो निषेध नथी, तेने आत्माथी जुदी पाडी शकाती नथी; आत्मा अने ज्ञान
वच्चे जरापण भेद पाडी शकातो नथी; एटले धर्मात्मा ज्ञानस्वभावने ज पोतानो जाणतो थको
निःशंकपणे तेमां ज वर्ते छे.–आ ज्ञानस्वभावमां निःशंकपणे पोतापणे वर्तवारूप जे ज्ञानक्रिया छे तेमां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे समाई जाय छे; तेथी आ ज्ञानक्रिया तो मोक्षमार्गमां निषेधवामां आवी
नथी.–ते तो स्वीकारवामां आवी छे.
३३. –तो कई क्रिया निषेधवामां आवी छे? ते हवे कहे छे; जेम ज्ञान ते हुं तेम क्रोधादि पण हुं–
अने