कारतक: २४८६ : ९ :
के ते व्यवहारना आश्रये कंई लाभ थाय छे. व्यवहारनय अभूतार्थ छे, तेना आश्रये कांई लाभ थतो
नथी छतां भगवाने ते व्यवहारनुं ‘पण’ ज्ञान कराव्युं छे. ‘व्यवहारनुं पण’ एटले के निश्चयथी जीवोने
जे शुद्धस्वभाव छे तेनुं ज्ञान करावीने, तेनी साथेसाथे पर्यायना व्यवहारनुं पण, ज्ञान कराव्युं छे.
हवे प्रश्न थाय के जो व्यवहार अभूतार्थ छे तो ते शा माटे दर्शावो छो? तो आचार्यदेव कहे छे के
सांभळ! जो के व्यवहारनय अभूतार्थ छे तो पण, व्यवहारने पण दर्शाव्यो छे; कारण के ते व्यवहारनय
व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे तेथी, अपरमार्थभूत होवा छतां पण, धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा
माटे ते दर्शाववो न्यायसंगत ज छे.
जुओ, आ निश्चय व्यवहारनी संधि! शुद्धस्वभावने जाणनार धर्मात्मा पर्यायमां अशुद्धता
वगेरेने पण जाणे तो छे. पर्यायमां जेम होय तेम जाणवुं ते तो बराबर न्यायसंगत ज छे. व्यवहारने
अभूतार्थ कह्यो तेनो अर्थ एम नथी के तेनुं ज्ञान पण न करवुं.–ज्ञान तो करवुं पण तेनो आश्रय न
करवो, तेने ज जीवनुं स्वरूप न मानी लेवुं.
जेनुं लक्ष शुद्ध जीव उपर नथी पण राग उपर अने देह उपर छे तेने ‘रागी जीव, पंचेन्द्रिय
जीव, ज्ञानी जीव, अज्ञानी जीव’ एवा जीवना भेदोवडे जीवनुं स्वरूप समजावे छे, एटले के
व्यवहारद्वारा परमार्थनुं प्रतिपादन करवामां आवे छे. ‘व्यवहारना अवलंबने परमार्थनी प्राप्ति थाय
छे’–एम नथी कह्युं, परंतु व्यवहारद्वारा परमार्थनुं प्रतिपादन थाय छे–एम कह्युं छे. आ रीते भगवाने
व्यवहार कह्यो होवा छतां, आचार्यदेवे आठमी गाथामां स्पष्ट कह्युं छे के ते व्यवहारनय अनुसरवा
योग्य नथी–‘व्यवहारनयो न अनुसर्त्त व्यः’
जिनमतमां बंने नयो कह्या छे, तेने छोडीश नहि, एटले निश्चय अने व्यवहार बंने जेम छे तेम
जाणजे.–पण बंनेने जाणीने करवुं शुं? के शुद्धस्वभाव तरफ ढळवुं, ने व्यवहारने अभूतार्थ जाणीने
तेनो आश्रय छोडवो.
रागादिभावो जीवनो परमार्थस्वभाव न होवा छतां तेने जीवनी साथे जेटलो संबंध छे तेटलो
जाणवो जोईए. पर्यायमां राग थतो होय ने एम जाणे के अमने पर्यायमां पण राग नथी, तो तो तेनुं
ज्ञान ज मिथ्या थयुं–माटे व्यवहारनय जाणवो अने कहेवो ते न्यायसंगत छे एटले के सम्यग्ज्ञान साथे
मेळवाळुं छे.
परमार्थे जीव त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वरूप एकाकार छे, छतां जीवनी पर्यायमां १४ गुणस्थानो–
जीवस्थानो वगेरे प्रकारो छे तेने पण जेम होय तेम जाणवा जोईए, तथा दरेक गुणस्थाननी जे स्थिति
होय ते बराबर जाणवी जोईए. चोथा गुणस्थाने समकितीने केवो राग छूटी जाय ने केवो राग रहे,
छठ्ठा गुणस्थाने मुनिने केवो राग छूटी जाय ने केवो राग रहे,–ते जाणवुं जोईए. जीव तो वस्त्रथी जुदो
छे, पछी छठ्ठा गुणस्थाने मुनिने वस्त्र होय तो शुं वांधो?–एम कोई माने तो तेने व्यवहारनी के
निश्चयनी एक्केयनी खबर नथी. अने, मुनिने पंचमहाव्रत वगेरे शुभविकल्प होय छे.–एम बताव्युं
त्यां ते विकल्पना आश्रये लाभ थवानुं मानी ल्ये तो तेणे व्यवहारने ज परमार्थ मानी लीधो, एटले
तेने पण निश्चयनुं के व्यवहारनुं एक्केयनुं भान नथी. निश्चय अने व्यवहार बंने जेम छे तेम
ओळखवा जोईए.
शास्त्रोमां बंध–मोक्षनुं अने तेनां कारणोनुं जे वर्णन कर्युं छे ते बधुं व्यवहारनयना विषयमां
आवे छे. व्यवहारे शरीर अने कर्म साथे जीवनो संबंध, रागद्वेषथी जीवने बंधन, वीतरागताथी जीवनी
मुक्ति’–आवुं देखाडनारो व्यवहारनय जो न मानवामां आवे तो बंध अने मोक्ष बंनेनो अभाव करे
छे. बंधन ज न स्वीकारे तो पछी मोक्षनो उपाय केम करे?–एटले व्यवहारे जीवने बंधन छे, ए जो न
स्वीकारवामां आवे तो मोक्षमार्गनुं ग्रहण करवानुं पण क््यां रह्युं–अने शास्त्रनो मोक्षमार्गनो उपदेश
पण निरर्थक गयो!–माटे व्यवहार देखाडवो ते न्यायसंगत छे.
जुओने, मारवानो–हिंसानो भाव क््यारे आवे छे? के जीव अने शरीरनो संबंध स्वीकारे छे
त्यारे, एटले के