: ८ : आत्मधर्म: १९३
* –जो के व्यवहारनय
अभूतार्थ छे तो पण.. *
–जुओ, आमां निश्चय–व्यवहारनी सरस
संधि छे. ‘भाई! तारा आत्माने बंधनथी
छोडाववा माटे तुं मोक्षनो उपाय कर’–आम
मोक्षमार्गना ग्रहणनो उपदेश करवो ते
व्यवहारनयथी छे.–परंतु मोक्षमार्गनुं ग्रहण कई
रीते थाय?–ते कांई व्यवहारना अवलंबने थतुं
नथी, ते तो निश्चयस्वभावना अवलंबने ज थाय
छे, माटे सार ए छे के, जाणवा तो निश्चय अने
व्यवहार बंनेने,–पण आश्रय करवो एक
निश्चयनो.–आ मोक्षमार्ग साधवानी रीत छे.
विशेष माटे आ प्रवचन वांचो.
(वीर सं. २४८प: भादरवा वद १४ तथा अमास)
आचार्यदेवे जीव–अजीवनुं भेदज्ञान करावीने, शरीरथी अने रागथी भिन्न शुद्ध जीवनुं स्वरूप
बताव्युं. शरीर के रागादि ते खरेखर जीव नथी, जीव तो चैतन्यमय ज छे, केमके भेदज्ञानीओ स्वयं
स्वानुभवथी ते शरीर अने रागथी जुदा चैतन्यस्वरूपने अनुभवे छे.
–आवुं शुद्ध जीवनुं स्वरूप सांभळीने व्यवहारना पक्षवाळो शिष्य, शास्त्रना व्यवहारकथननो
आधार आपीने पूछे छे: प्रभो! आ रागादि अने देहादि जो जीव नथी तो भगवानना आगममां
तेमने जीव तरीके केम वर्णव्या छे? रागी जीव, द्वेषी जीव. एकेन्द्रियजीव, पंचेन्द्रियजीव ईत्यादि कथनोथी
रागने अने देहने जीव तरीके केम कह्या छे? तेना उत्तरमां आचार्यदेव आ ४६मी गाथा कहे छे:–
व्यवहार ए दर्शावियो जिनवरतणा उपदेशमां,
आ सर्व अध्यवसान आदि भाव ज्यां जीव वर्णव्या.
हे शिष्य! परमार्थे देह अने रागादिथी भिन्न चैतन्यस्वभाव होवा छतां, ‘रागी जीव, पंचेन्द्रिय
जीव वगेरे’ कथन जिनवरना आगममां कर्युं छे ते, व्यवहारनयने दर्शाव्यो छे. एटले के पर्यायमां ते
प्रकारनो राग अने देह साथेनो निमित्तनैमित्तिकसंबंध छे तेनुं पण ज्ञान कराव्युं छे.
व्यवहारनयनुं ज्ञान कराव्युं छे तेथी एम न समजवुं