कारतक: २४८६ : ७ :
व्यवहारनो उपहास!
आत्माना चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थईने तेनुं अवलोकन ते परमार्थआलोचना छे. आवी
परमार्थआलोचनाना वर्णन बाद व्यवहारनो उपहास करतां टीकाकार मुनिराज १पपमा श्लोकमां कहे
छे के:
‘आरातीये परमपुरुषे को विधिः को निषेधः’
अहा, चिदानंदस्वभावी परमपुरुष ज्यां निकट छे, त्यां विधि शो अने निषेध शो? परिणति
ज्यां अंतर्मुख थईने परमस्वभावमां वळी त्यां व्यवहारना विकल्प केवा? ‘आ विधि ने आ निषेध,
आ ग्रहवुं ने आ छोडवुं’–आवा विकल्पोरूप जे व्यवहार, तेनी मश्करी (–ठेकडी, हांसी, तिरस्कार,
उपहास) करतां मुनिराज कहे छे के आ निकट परमपुरुषमां व्यवहार केवो?–विधि–निषेधना विकल्पो
केवा? चैतन्यस्वभाव तरफ ज्यां परिणति वळी त्यां बधा व्यवहारना विकल्पो क््यांय भागी जाय छे.
तेथी मुनिराज कहे छे के अरे व्यवहार! अमारा चिदानंद स्वभावमां तारुं स्थान केवुं? अमारो
मोक्षमार्ग ताराथी उपेक्षित छे, परमनिरपेक्ष रत्नत्रयमां व्यवहारनी अपेक्षा नथी, व्यवहारनो आश्रय
नथी. ‘निश्चय नयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी’–ए ज वात अहीं बीजी रीते बतावी छे.
“अमारा घरमां तारो प्रवेश नथी”–एम कहीने जेम कोई सज्जन पुरुष दुष्ट माणसनो
तिरस्कार करे तेम अहीं” अमारा चिदानंद स्वभावमां तारो प्रवेश नथी” एम कहीने संत मुनिराजे
विभावरूप व्यवहारनो तिरस्कार कर्यो छे. जेम वीरपुरुषनी सामे नपुंसक माणस टकी शकतो नथी, तेम
चिदानंदस्वभावनुं अवलंबन करतो चेतन्यवीर ज्यां जाग्यो त्यां पराश्रित व्यवहार टकी शकतो नथी,
तेथी मुनिराज कहे छे के अहा! आवो परम स्वभाव ज्यां अमारा चित्तकमळमां स्पष्ट थयो....ने तेना
अनुभवमां परिणति एकाग्र थई, त्यां विधिनिषेध केवा?–त्यां व्यवहारना विकल्पो नथी, त्यां तो
आत्मपरिणति आनंदमां ज मग्न छे.
आनंदमय निजतत्त्वमां जेनी परिणति निमग्न थई ते जीवने परमपुरुष परमात्मा निकट छे ने
विधि–निषेधना विकल्पो दूर–दूर छे; ते जीव स्वभावसुखरूपी सुधासागरमां डूबेलो छे,....दुःखमय
हुं सदा अतिअपूर्व रीते भावुं छुं.
“संयम सुधासागरने आत्मभावनाथी भावुं.”
(–नियमसार कळश १पप–१प६–१प७ ना प्रवचनोमांथी.).
त्रणने ओळखे ते त्रणने पामे– आ त्रणने जे जीव बराबर ओळखे ते
(१) स्वभावनुं सामर्थ्य (१) जडथी जुदो थाय,
(२) विभावनी विपरीतता अने (२) विभावथी विमुख थाय, अने
(३) जडनुं जुदापणुं (३) स्वभावनी सन्मुख थाय.
–आवा त्रण प्रकार थतां जीव रत्नत्रयने पामे छे.