प्रतिभासतो नथी पण ज्ञानरूपे ज थतो प्रतिभासे छे. –आ रीते बंनेने भिन्न भिन्न जाणतो थको ते
वखते ते ज्ञानपणे ज थाय छे, क्रोधपणे थतो नथी; भेदज्ञान एक क्षण पण खसतुं नथी, ज्ञान अने
क्रोधनी एकता जरा पण थती नथी. एटले, ज्ञानपणे परिणमतो ते ज्ञानी क्रोधपणे पण परिणमे छे–
एम कोई रीते सिद्ध थतुं नथी; केमके ज्ञाननुं जे परिणमन छे तेमां क्रोधादिनुं परिणमन नथी, स्वभाव
तरफ ढळती परिणतिमां विभावनुं कर्तृत्व होतुं नथी, स्वभावनी ज्यां रुचि छे त्यां विभावनी रुचि
होती नथी, स्वभाव साथे ज्यां एकता छे त्यां विभाव साथे एकता रहेती नथी. आ रीते स्वभाव
तरफ वळेलुं ज्ञान अने विभावरूप क्रोधादि, ए बंनेने अत्यंत भिन्नता छे. आवी भिन्नता होवाथी
भेदज्ञानी जीवने क्रोधादि साथेना कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति होती नथी, एटले तेने बंधन पण थतुं नथी.
अनुभवाशे अंतर्मुख अनुभवमां ‘हुं ज्ञान छुं’ एम प्रतिभासे छे, पण ‘हुं क्रोध छुं’ एम प्रतिभासतुं
नथी; केमके ज्ञानमां क्रोध नथी.
तने खबर पडे के ज्ञानी शुं करे छे! राग वखते ज्ञानी राग करे छे के ज्ञान करे छे तेनी खबर अज्ञानीने
नहि पडे, केमके तेने पोताने राग अने ज्ञाननी भिन्नतानुं भान नथी. समकितीने राग थतो होवा छतां
ते ज वखते ज्ञानमां एकतारूपे परिणमन होवाथी, ने रागमां एकतारूपे नहि परिणमता होवाथी, ते
ज्ञानी ज छे.
७९. भेदज्ञानीने सतत ज्ञानभवन छे, अज्ञानीने सदा क्रोधादिनुं भवन छे; क्रोध वखते तेनाथी
वखतेय पोतानो ज्ञान स्वभावी आत्मा तेनाथी जुदो प्रतिभासे छे, तेथी ते क्रोध वखतेय ज्ञानरूपे ज
परिणमता थका ते ज्ञानी ज छे.