Atmadharma magazine - Ank 193
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८६ : प :
वैराग्यनी छाया छवाई गई छे एवा ते नानकडा राजकुमार मुनि थाय छे.–अहा, एनो देदार! जाणे
नानकडा सिद्धभगवान होय! धन्य ए दशा! धन्य ए जीवन!–एवी दशा प्रगट करवा माटे केवुं
भेदज्ञान होवुं जोईए–तेनी आ वात छे.
६८. अज्ञानथी थतुं बंधन क््यारे अटके–एम पूछनार शिष्यने आचार्यदेव उत्तर आपे छे के,
जीव ज्यारे आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान करे त्यारे तेने बंधन थतुं नथी. प्रथम आत्मा अने
आस्रवोनी भिन्नता कई रीते छे ते ओळखावीने भेदज्ञान करावे छे: आ जगतमां जे वस्तु छे ते
स्वभावमात्र ज छे. ज्ञानस्वभावी आत्मा पोताना ज्ञानमात्र छे, क्रोधादिरूप नथी; अने क्रोधादिभावो
ते क्रोधादिरूप छे, ज्ञानरूप नथी. आ रीते आत्मानो स्वभाव अने क्रोधादिनो स्वभाव भिन्न भिन्न छे.
६९. ‘स्वभाव एटले शुं?’ स्वनुं भवन ते स्वभाव छे. ज्ञाननुं परिणमन ते तो आत्मानो
स्वभाव होवाथी आत्मा ज छे, अर्थात् ज्ञानपरिणमन तो आत्मा साथे अभेद छे. अने क्रोधादिभावनुं
जे परिणमन छे ते तो क्रोधादिरूप ज छे, ते ज्ञानरूप नथी. क्रोध ते ज्ञाननो स्वभाव नथी, ज्ञान
परिणमीने क्रोधरूप थतुं नथी; अने क्रोधादिना परिणमनमां ज्ञान नथी, ज्ञान साथे तेने अभेदता नथी
पण भिन्नता छे.–आ रीते ज्ञानने अने क्रोधने भिन्नता छे, एटले के आत्माने अने आस्रवोने भिन्नता
छे.
७०. ज्ञायक स्वभावनी सन्मुख थईने जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप अवस्था थई ते तो
ज्ञाननुं परिणमन छे, तेमां क्रोध नथी; अने रागादिनी सन्मुख थईने जे क्रोधादि थाय छे तेमां ज्ञान
नथी. आ रीते ज्ञान ज्ञानमां ज छे, क्रोधादि क्रोधादिकमां ज छे; तेमने एकपणुं नथी, तेमनो स्वभाव
जुदो छे.–ज्यारे आवुं जुदापणुं जाणीने जीव ज्ञानरूपे परिणमे छे त्यारे, अज्ञानथी थयेली अनादिनी
कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो तेने अभाव थई जाय छे, अने तेनो अभाव थतां तेने बंधन पण छूटी जाय छे.
आ रीते ज्ञानवडे बंधन अटके छे.
७१. जुओ, अहीं ‘ज्ञान–कोने कह्युं?–के अंतरमां वळीने आत्मस्वभाव साथे जे पर्याय अभेद
थई तेने ‘ज्ञान’ कह्युं. ते ज्ञानमां (एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ पर्यायमां) क्रोधादि
नथी. निश्चयथी जे ज्ञाननुं थवुं ते तो आत्मा छे, अने क्रोधादिनुं थवुं ते खरेखर आत्मा नथी;–तेनी
साथे आत्मानी एक्ता नथी; तेथी ते क्रोधादिमां तो क्रोधादि ज छे, तेमां ज्ञान नथी. आ रीते ज्ञानमां
क्रोध नथी ने क्रोधमां ज्ञान नथी; ज्ञान अने क्रोध बंनेनो स्वभाव जुदो छे, ने बंनेनुं भिन्नभिन्न
परिणमन छे. पण जीव ते बंनेने एक मानतो थको, ज्ञाननी जेम ज क्रोधादिमां पण निःशंक–एकपणे–
कर्ताबुद्धिथी प्रवर्ततो थको अज्ञानी हतो त्यारे तेने बंधन थतुं हतुं. हवे ज्ञान अने क्रोधनुं आवुं
भेदज्ञान करवाथी जीव पोताना ज्ञानभावमां ज परिणमे छे, अने क्रोधादिने ज्ञानथी भिन्न जाणतो थको
ते क्रोधादिना कर्तापणे परिणमतो नथी, तेथी तेने बंधन थतुं नथी. आ रीते भेदज्ञानथी ज बंधन अटके
छे.
७२. जुओ, भाई! जीवनमां आ वात लक्षमां लईने आवुं भेदज्ञान करवा जेवुं छे. आ
भेदज्ञान वगर जगतमां कोई शरण नथी. भेदज्ञान वगर जिंदगी चाली जशे तो अवतार निष्फळ जशे.
७३. अहीं आचार्यदेवे अंदरमां स्वभाव अने विभावनुं भेदज्ञान कराव्युं छे. आत्मा परथी तो
जुदो ज छे ने रागादि विभावथी पण आत्मानो स्वभाव जुदो छे. आवा स्वभावने एक वार लक्षमां
तो ल्यो. आवा स्वभावने लक्षमां लईने तेनुं बहुमान–रुचि–घोलन करवुं ते हितनो उपाय छे.