Atmadharma magazine - Ank 193
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८६ : ११ :
(११)
(नियमसार गाथा १प)
‘कारणशुद्धपर्याय’ के जे नियमसारनो
एक खास विषय छे, तेनी उपरनां प्रवचनोनी
आ लेखमाळा आ अंके समाप्त थाय छे. आ
प्रवचनोनो ऊंडो अभ्यास करनार जिज्ञासुने
ख्याल आवशे के कारण अने कार्यनी संधिनुं केवुं
अद्भुत–अंतर्मुखी वर्णन संतोए कर्युं छे? अने
एनुं रटण करतां आत्मार्थीने अंतरमां एवा
भावतरंगो स्फूरे छे के जाणे परिणति उल्लसी
उल्लसीने ‘कारण’ने भेटती होय! खरेखर,
पोतानुं हितकार्य करवाना कामी जीवोने तेनुं
वास्तविक कारण दर्शावीने संतोए महान
उपकार कर्यो छे. ‘न हि कृतमुपकारं साधवो
विस्मरन्ति’ ए उक्ति–अनुसार, ते संतोना
महान उपकारनुं फरीफरी स्मरण करीने तेओने
नमस्कार करीए छीए.
*
आत्मानी कारणशुद्धपर्यायनुं वर्णन चाले छे. जेमां कर्मनी अपेक्षा नथी एवी आ स्वभावपर्याय
दरेक आत्मामां त्रिकाळ रहेली छे.....ते त्रिकाळ आनंदमां डुबेली छे. पण ज्यारे तेने ओळखे त्यारे तेने
अनुसरीने स्वभाव कार्य प्रगटे छे. कार्य त्रिकाळ नथी होतु; कारण त्रिकाळ छे, तेने ज्यारे अवलंबे
त्यारे ते कारण जेवुं निर्मळ कार्य नवुं प्रगटे छे. तेथी एवुं कार्य प्रगट कराववा माटे अहीं ‘कारण’ नो
महिमा ओळखावे छे.