: १२ : आत्मधर्म: १९३
हे जीव! तुं सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धदशा सुधीनुं जे शुद्ध कार्य प्रगट करवा मांगे छे तेनुं कारण
थवानी ताकात तारा आत्मामां ज छे. बहारना कोई पण पदार्थमां तारा सम्यग्दर्शनादिनुं कारण
थवानी ताकात नथी, ते ताकात तो तारा आत्मामां ज वर्ती रही छे...माटे अंतर्मुख थईने एकवार
एनी प्रतीत कर. तेनुं भान थतां ज तने एम थशे के अहो! मारुं कारण तो मारामां ज हतुं, पण
अत्यार सुधी हुं तेने भूल्यो, तेथी मारुं कार्य न थयुं.....हवे मने कारणना महिमानी खबर पडी.–आम
कारण–कार्यनी संधि थतां तारा आत्मामां अचिंत्य चैतन्यतरंगो उल्लसशे.
‘नियमसार’ एटले शुद्ध रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग; ते नियमथी करवायोग्य कार्य छे. आ ‘कार्य’
ते वर्तमान पर्याय छे, ते कार्यनी साथे तेनुं ‘कारण’ पण वर्तमानरूप बतावीने संतोए अद्भुत वात
करी छे. ‘कारणशुद्धपर्याय’ कहो के ‘कार्यनुं वर्तमान कारण’ कहो.
केवी छे कारणशुद्धपर्याय? आत्माना त्रिकाळी स्वभावभूत जे सहज चतुष्टय, तेनी साथे रहेली
पूजित पंचमभाव–परिणति ते कारणशुद्धपर्याय छे. अहा, आचार्यदेव कहे छे के आ परिणति पूजित छे,
–आदरणीय छे, आश्रय करवायोग्य छे. जुओ, आने ‘परिणति–कही पण ते व्यवहारनयनो विषय
नथी, ए तो सहज शुद्ध निश्चयनयनो विषय छे. सहजशुद्ध निश्चयनयथी आत्माने लक्षमां लेतां तेमां
आ कारणशुद्धपयार्य पण भेगी ज छे, एने गौण करी शकाती नथी; ए तो द्रव्य साथे त्रिकाळ
तन्मयपणे वर्ते छे.
१–अतीन्द्रियस्वभावी सहजज्ञान, के जे अनादि अनंत छे.
२–अतीन्द्रियस्वभावी सहजदर्शन, के जे अनादि अनंत छे,
३–अतीन्द्रियस्वभावी सहजचारित्र, के जे अनादि अनंत छे, अने
४–अतीन्द्रियस्वभावी सहज परमवीतरागसुख, के जे अनादिअनंत छे.
–आवा स्वभावचतुष्टय आत्मामां त्रिकाळ छे अने ते आत्मानुं शुद्धअंतःतत्त्व छे. आत्माना
अंतरंगतत्त्वरूप जे आ त्रिकाळी स्वभाव–चतुष्टय, तेनी साथे वर्तती पूजित पंचमभाव परिणति ते
कारणशुद्धपर्याय छे. आ कारणशुद्धपर्याय औदयिकादि चार भावोरूप नथी पण पंचम पारिणामिक
भावरूप छे, अने कर्मोथी त्रिकाळ निरपेक्ष छे. अनादिअनंत आत्म–आकारे वर्तती एवी आ
स्वभावभूत कारणपरिणति ते निर्मळकार्यनुं कारण छे; कारणपरिणति कंई आत्माथी जुदी नथी,
कारणपरिणतिपणे वर्ततो आखो आत्मा ते ज बधी निर्मळपर्यायोनुं कारण छे आवो भगवान
कारणपरमात्मा दरेक जीवने उपादेय छे.....ते कोई बीजो जुदो नथी पण पोते ज छे. अहो! एकधाराए
परम पारिणामिकभावनी परिणतिथी शोभित चैतन्यभगवान बिराजी रह्यो छे.....अनादिअनंत
एकधाराए ज्यारे जुओ त्यारे परिपूर्ण, वर्तमान वर्ततो हाजराहजूर परमात्मा बिराजी रह्यो छे–
शोभी रह्यो छे......हे जीव! आने ज तुं तारुं कारण बनाव...ने बाह्य कारणो शोधवानुं भ्रमण छोड!
अहा, ज्यां स्वत: पोतामां पूर्णता भरी छे त्यां बीजानी अपेक्षा शुं होय?
जुओ, आ निरपेक्षस्वभाव! जेम धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए चारे
द्रव्यो त्रिकाळ शुद्ध छे, निरपेक्ष एकरूपे ज सदाय वर्ते छे; तेम आत्माने पण जो तेना
निरपेक्षस्वभावथी जुओ तो, मोक्ष वखते के साधकदशा वखते ते सदाय एकरूप शुद्धरूपे ज वर्ते छे....
पोताना सहज स्वभावचतुष्टय सहित पंचमभावपरिणतिथी ते सदाय शोभी रह्यो छे. मुनिराज कहे छे
के आवी परिणतिथी शोभतो आत्मा पूजित छे, केम के ते केवळज्ञाननो दातार छे.–आवा कारणना
अवलंबने केवळज्ञानकार्य ने साधतां साधतां साधकसंतोना हैयामांथी आ उद्गार नीकळ्या छे.
जेम धर्मास्तिकाय वगेरे द्रव्योमां उदयादिनी अपेक्षा