कारतक: २४८६ : १३ :
वगरनुं पारिणामिकभावे सदा परिणमन छे....तो तेना करतां मोटो–महिमावंत एवो जे
चैतन्यभगवान आत्मा, तेने पण कर्मना उदयादिनी अपेक्षा वगरनी परिणति (वर्तमान वर्तवापणुं)
पारिणामिकभावे वर्ते छे....आ निरपेक्ष स्वभावपरिणतिनुं नाम छे–‘कारणशुद्धपर्याय’ .
ज्ञानावरणादि कर्मोना नाशथी जे केवळज्ञानादि पर्याय प्रगटी ते पण स्वभावपर्याय छे अने
तेने ईंद्रियो वगेरेनी अपेक्षा नथी ते अपेक्षाए तेने निरपेक्ष कहेवाय, परंतु कर्मना क्षय साथे तेने
निमित्त–नैमित्तिक–संबंध छे एटली अपेक्षा तेनामां आवे छे; त्यारे आ कारणशुद्धपर्यायमां तो कर्म
साथेना निमित्त–नैमित्तिक–संबंधनी पण अपेक्षा नथी, ते तो द्रव्य साथे त्रिकाळ निरपेक्षपणे वर्ते छे!
ए ध्यानमां राखवुं के वर्तमान पर्यायमां अज्ञान–ज्ञान, राग–वीतरागता, संसार–मोक्ष ईत्यादि
कार्य जीवोने वर्ते छे ते कार्यना स्वीकारपूर्वकनी आ वात छे. जो ते कार्य पर्यायने न स्वीकारे, अशुद्ध
कार्यने टाळीने शुद्ध कार्य करवानुं छे–तेने न स्वीकारे तो,–‘कार्य वगर कारण कोनुं?’–एटले पर्यायमां
शुद्ध–अशुद्ध कार्यना स्वीकारपूर्वक ज, शुद्ध कार्यना कारणरूप आ ‘कारणशुद्धपर्याय’नो वास्तविक
स्वीकार थाय छे. ‘आ मारी शुद्धतानुं कारण”–एम ते ज कही शके छे जेणे ते कारणना आश्रये शुद्ध
कार्य प्रगट कर्युं होय. आ रीते कार्य–कारणनी संधिपूर्वकनी आ वात छे. (आ खास बाबतनुं
स्पष्टीकरण आ लेखमाळामां पूर्वे अनेक वार आवी गयुं छे.)
आ कारणशुद्धपर्याय वर्तमानरूप छे. जो ते वर्तमानरूप न होय तो वर्तमानकार्य पण शुद्ध न
थई शके. शुद्धकार्य जेम वर्तमानमां थाय छे तेम तेनुं शुद्धकारण पण वर्तमान वर्ते छे. आ रीते
कारणशुद्धपर्याय पोताना स्वाभाविक–चतुष्टय वैभवसहित वर्तमान वर्ते छे,–पण ते उत्पाद–व्ययरूप
नथी, उत्पादरूपे तेनो अनुभव नथी. जो तेनो उत्पादरूप अनुभव होय तो तो ते कार्य थई जाय अने
त्रणे काळे अनंतचतुष्टयनो प्रगट अनुभव होय.–परंतु एम तो छे नहीं. अनंतचतुष्टयनो प्रगट
अनुभव तो त्यारे ज थाय छे के ज्यारे कारणनो आश्रय करीने शुद्धकार्य प्रगट करे. जो आ एकरूप
धारावाही कारणशुद्धपर्याय आत्मा साथे त्रिकाळ न होय तो स्वभावनुं त्रिकाळ सामर्थ्य अने एवुं ज
तेनुं परिपूर्ण वर्तमान–ते बंनेना अभेदरूप अखंड पारिणामिकभाव साबित कई रीते थाय? वर्तमान
पूर्णसामर्थ्यनी सिद्धि वगर त्रिकाळ पूर्ण सामर्थ्यनी सिद्धि क््यांथी थाय? वर्तमान पूर्ण सामर्थ्यरूपे
वर्तती जे कारणशुद्धपर्याय तेना आश्रये मोक्षकार्य प्रगटे छे. वर्तमान पूर्ण कार्य प्रगट करवा माटे जो
पूरो आश्रय वर्तमान न होय तो तो कार्यने माटे भूत–भविष्यमां दोडवुं पडे! परंतु वर्तमान कार्यने
माटे जेम परनो आश्रय नथी तेम वर्तमानकार्यने भूत–भविष्यनो पण आश्रय नथी, वर्तमान कार्यनो
आश्रय पण वर्तमानरूप ज छे–जो बंने वर्तमानरूप न होय तो तो कारण–कार्यनी एक्ता क््यांथी थाय?
एटले, आत्मा पोते कारणशुद्धपर्यायपणे वर्तमान वर्ततो थको पोताना शुद्धकार्यनो आश्रय छे.
कारणशुद्धपर्यायनो वैभव केवो छे? के त्रणे काळे जेमां सहजज्ञानना भंडार भर्या छे, त्रणे काळे
जेमां सहज दर्शनना भंडार भर्यां छे, त्रणे काळे जेमां सहजचारित्रना भंडार भर्या छे अने त्रणे काळे
जेमां सहजवीतरागसुखना भंडार भर्या छे अहा! आवा सहज–चतुष्टयना भंडारथी परिपूर्ण एवी
पूजित पंचमभावपरिणति (कारणशुद्धपर्याय) आत्मामां वर्ते छे. हे जीव! तारा आ भंडारमांथी तुं
केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टय प्रगट कर.....अनंतकाळ सुधी तुं तेमांथी केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टय
काढयां कर तो पण कदी खूटे नहि एवो अखूट ए भंडार छे. आवो भंडार तारी पासे छे तो पछी तारे
पराश्रयनी भीख शा माटे मांगवी जोईए?–शा माटे बाह्य कारणोने शोधवा जोईए?–अंतर्मुख था ने
तारा चैतन्यभंडारने देख! अहो! मुनिवरोए वस्तुना वैभवने प्रसिद्ध कर्यो छे.
अहीं स्वभावचतुष्टयमां जे ‘सहज परम वीतराग सुख’ कह्युं तेमां ‘वीतराग’ कहेतां एम न
समजवुं के