Atmadharma magazine - Ank 193
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म: १९३
पहेलां राग हतो ने पछी टळ्‌यो. परंतु ते तो स्वभावथीज सदाय रागरहित छे. चैतन्यभगवान पोताना
स्वभाव अनंतचतुष्टयनी सहजपरिणति साथे ज त्रणेकाळे बिराजी रह्यो छे, एक समय पण ते परिणतिनो
तेने विरह नथी.–आवी तेनी स्वरूप–परिणति सहित ते पूजनीक छे–उपादेय छे–सेव्य छे. निर्मळ
परिणतिवडे ज तेनी यथार्थ पूजा–उपासना–सेवा थाय छे, कार्यवडे कारणनी सेवा थाय छे....कारणना सेवन
अनुसार कार्यनी निर्मळता थाय छे. जे शुद्ध कारणने सेवे तेने शुद्ध कार्य (सम्यक्त्वादि) थाय छे. अने जे
अशुद्ध कारणने (रागादिने) सेवे तेने अशुद्धकार्य (मिथ्यात्वादि) थाय छे.
जेवो त्रिकाळ स्वभाव तेवुं ज तेनुं वर्तमान, जेवुं त्रिकाळ सामान्य तेवुं ज तेनुं वर्तमान
विशेष–आ रीते परमपारिणामिक स्वभावे आत्मा सदा वर्ती रह्यो छे. एकला स्वभावनी ज
अपेक्षावाळी जे एकरूप धारावाही परिणति छे ते ज कारणशुद्धपर्याय छे अने ते पूजनीय छे.
त्रिलोकनाथ अर्हंत अने सिद्धभगवंतो पण आ परम पारिणामिक भावनी पूजित परिणतिनुं सेवन
करीकरीने ज अर्हंत अने सिद्ध थया छे. माटे, मुनिराज कहे छे के हे भव्य जीवो! तमे पण तेनुं ज
सेवन करो. पोते तेना सेवनवडे सिद्धपदने साधतां साधतां कहे छे के हे सखा! तुं पण आनुं सेवन
करीने..... चालने मारी साथे मोक्षमां!
जेम दरियो, दरियानुं पाणीनुं दळ अने तेनी एकरूप पाणीनी सपाटी, ते एकरूप छे ने उपर
मोजांनां तरंगो विविध ऊठे छे ने पाछा शमे छे. तेम आत्मामां त्रिकाळी द्रव्य, तेनां गुणो अने
पारिणामिकभावे वर्तती तेनी परिणति ते एकरूप छे ने जे उत्पाद–व्ययरूप पर्यायो छे ते विविध छे,
तेमां उदयादिभावो होय छे, ते उत्पन्न थईने बीजी क्षणे लय पामे छे, ज्यारे कारणशुद्धपर्यायमां तो
पारिणामिक भावरूप एक ज प्रकार छे, ते कदी लय पामती नथी, एकधाराए सदाय वर्ते छे.
आ कारणपर्याय सदा शुद्ध छे. कार्यपर्यायमां शुद्ध ने अशुद्ध एवा भेदो छे पण कारण तो सदा
शुद्ध ज छे, तेमां शुद्ध ने अशुद्ध एवा प्रकार नथी, तेमज तेने अशुद्धतानुं कारणपणुं पण नथी. प्रगट
पर्यायमां अशुद्धता होय तो पण कारणशुद्धपर्यायमां अशुद्धता नथी. कारणशुद्धपर्याय तो शुद्धतानुं ज
कारण छे. एनामां ‘पर्याय’ शब्द आवे छे तेथी एम न समजवुं के ते पर्यायद्रष्टिनो विषय छे. ते
पर्याय द्रव्य साथे सदा तन्मयपणे वर्तती थकी द्रव्यद्रष्टिना विषयमां समाय छे. त्रिकाळी आखा द्रव्यनो
एक वर्तमान भेद होवाथी तेने माटे ‘पर्याय’ शब्द वापर्यो छे....ने वर्तमान कार्य (मोक्षमार्ग) करवा
माटे तेनुं वर्तमान कारण बताव्युं छे. आ कारण उपर जेनी द्रष्टिनुं जोर छे तेने सम्यग्दर्शनादि कार्य
थाय छे.
सर्वे पदार्थोने जाणनारो ने सर्वोत्तम महिमावाळो आ चैतन्यमूर्ति आत्मा छे, तेना अंतरमां
वर्तमानमां शुं–शुं वर्ती रह्युं छे तेनी आ वात छे. कोईने आ वात तद्न नवी लागे ने झट न समजाय
तो पण एवा लक्षथी सांभळवुं के आ मारा स्वभावसामर्थ्यनो कोई अचिंत्य महिमा गवाय छे.
स्वभावना बहुमानना संस्कार पण मोहने अत्यंत मंद करी नांखे छे.
आ ‘कारणशुद्धपर्याय’ कहीने सन्तो अने ज्ञानीओ एम बतावे छे के अरे जीव! समये समये
तारामां परिपूर्णता वर्ती रही छे, शुद्धतानुं पूर्ण कारण ज्यारे जो त्यारे तारामां हाजर ज पड्युं छे,
बहारमां कारण शोधवा जवुं पडे तेम नथी.–माटे अंतर्मुख था! अंतर्मुख थईने ते कारणना आश्रये
तारा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप कार्यने प्रगट कर. ए ज नियमथी कर्तव्य छे.
चैतन्यभगवान पासे तेनी, तैयारी सजेली तरवार जेवी,–कारणशुद्धपरिणति हाजर ज पडी छे,
तेनी सामे जोईने हाथमां ल्ये एटली ज वार छे....ते कारणने हाथमां लेतांवेंत (–तेनो आश्रय
करतावेंत) अनंतसंसार कट थई जाय छे. भगवान कारणपरमात्मा पोतानी कारणशुद्धपरिणतिरूप
सिंहासने सदाय बिराजी रह्यो छे,–कारणपरिणतिथी परिपूर्णपणे सदाय शोभी रह्यो छे.–आवी
पूर्णताने मानशे ते पूर्णताने पामशे....अधूरो ज मानशे ते अधूरो