कारतक: २४८६ : १प :
ज रहेशे.
स्वभावभूत जे कारणशुद्धपर्याय तेना आश्रये प्रगटतुं पूर्ण कार्य केवुं छे, अर्थात् स्वभावभूत
कार्यशुद्धपर्याय केवी छे ते हवे कहे छे: केवळज्ञान, केवळदर्शन, केवळसुख अने केवळशक्ति–आवा
अनंतचतुष्टय सहितनी परमोत्कृष्ट क्षायिक भावनी शुद्धपरिणति ते कार्यशुद्धपर्याय छे. जेम ‘कारण’ मां
चतुष्टय लीधा हता तेम आ ‘कार्य’ मां पण चतुष्टय लीधा, पण बंनेमां ते चार गुणनी साथे बीजा
अनंता गुणोनी वात पण भेगी ज समजी लेवी.
कारणशुद्धपर्यायमां जे चतुष्टय कह्या ते अनादिअनंत हता, अने आ कार्यशुद्धपर्यायमां जे
चतुष्टय कह्या ते सादिअनंत छे. कारणशुद्धपर्याय त्रणे काळ कर्मनी उपाधिथी रहित छे ने कार्यशुद्धपर्याय
प्रगट्या पछी सदाय कर्मनी उपाधिथी रहित छे. कारणशुद्धपर्याय सहजशुद्धनिश्चयनयनो विषय छे ने
आ कार्यशुद्धपर्याय शुद्धसद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे.
जुओ, आ कारण–कार्यनी अद्भुत वात! आ शा माटे समजावे छे?–के आवुं पूर्ण शुद्ध कार्य
प्रगट करवुं ते कर्तव्य छे.......अने ते कार्य, कारणस्वभावना आश्रये प्रगटे छे.–आम जाणीने, बीजा
बधानो आश्रय छोडीने एक कारणस्वभावनो आश्रय करवो–ते आ उपदेशनुं तात्पर्य छे.
अहो! जंगलमां बेठाबेठा मुनिवरोए सिद्धपरमात्मा जेवो जे पोतानो कारणपरमात्मा....तेनी
साथे ध्याननी केलि करतां करतां आनंदना दरिया ऊछळ्या छे,
आ रीते कारणशुद्धपर्याय अने कार्यशुद्धपर्याय–एम बे प्रकारे जीवनी स्वभावपर्यायनुं वर्णन
कर्युं. अने हवे छए द्रव्यनी अपेक्षाथी स्वभावपर्याय कहे छे: छए द्रव्योने साधारण अने सूक्ष्म एवा
अर्थपर्यायो ते शुद्ध छे; ते सूक्ष्मऋजुसूत्रनयनो विषय छे अने षट्गुणवृद्धिहानि सहित छे. आ रीते
पहेलां जीवनी स्वभावपर्यायोनुं, अने पछी छए द्रव्योनी स्वभावपर्यायनुं वर्णन कर्युं.
नर–नारकादि पर्यायो ते जीवनी विभावपर्यायो छे. जे जीव पर्यायबुद्धिवाळो छे एटले के
विभावपर्यायने ज पोतानुं स्वरूप माने छे, ते जीव विभावपर्यायोरूपे परिणमतो थको नवानवा शरीर
धारण करीने चार गतिमां रखडे छे. ज्ञानी तो चिदानंदी कारण परमात्मा ते ज हुं छुं–एम जाणीने तेनी
ज भावनावडे निर्मळपर्यायोरूपे परिणमतो थको सिद्धपदने पामे छे.
श्लोकद्वारा पद्मप्रभमुनिराज कहे छे के बहु विभाव होवा छतां पण, सहज परमतत्त्वना अभ्यासमां
जेनी बुद्धि प्रवीण छे एवो आ शुद्धद्रष्टिवाळो पुरुष, ‘समयसारथी अन्य कांई नथी’ एम मानीने, शीघ्र
मुक्ति पामे छे. जुओ, आ निश्चय–व्यवहारनी संधि! ‘...विभाव होवा छतां.....’ एम कहीने पर्यायमां
व्यवहार छे तेनो स्वीकार कर्यो, पण ‘समयसारथी अन्य कांई नथी’ एम कहीने शुद्धद्रष्टिमां तेनो अभाव
बताव्यो. आ रीते शुद्ध द्रष्टिना जोरे विभावनो निषेध करीने धर्मी जीव मुक्ति पामे छे.
प्रवीण कोण?–के जेनी बुद्धि सहज परमतत्त्वना अभ्यासमां लागेली छे ते; विभावमां जेनी
बुद्धि लागेली छे ते प्रवीण नथी.
“परमतत्त्वनो अभ्यास” ते चारित्र सूचवे छे;
“प्रवीणबुद्धि” ते सम्यग्ज्ञान सूचवे छे;
“शुद्धद्रष्टि” ते सम्यग्दर्शन सूचवे छे;
–आ रीते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रवाळो पुरुष, विभावनो निषेध करीने चिदानंद स्वभावना
आश्रये मुक्ति पामे छे.
अहो! ‘जिन’ अने ‘जीव’ सरखा छे:
जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई;
लक्ष थवाने तेहनो, कह्यां शास्त्र सुखदाई.
प्रत्येक आत्मा सिद्धसमान परिपूर्ण स्वभावी छे....अज्ञानी भले पोताने विभावपर्याय जेटलो
ज माने, पण ज्ञानी तो कहे छे के ते व्यवहारथी ज विभावपर्यायरूप थयो छे, निश्चयथी तो ते सिद्ध
जेवो ज छे, माटे हे जीव!