: १६ : आत्मधर्म: १९३
तुं शुद्धद्रष्टिथी तारा आत्माने आवो देख. शुद्धस्वभावने द्रष्टिमां लईने तेनी भावना करतां तुं पण
काले सिद्ध परमात्मा बनी जईश.
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‘कारणशुद्धपर्याय’नी लेखमाळामां खास करीने ए देखाडयुं छे के जीवना हितकार्यनुं साक्षात्
कारण जीवमां पोतामां ज वर्तमान वर्ती रह्युं छे; ‘कारण’ बीजे क््यांय शोधवा जवुं पडे एम नथी.
जीवने पुरुषार्थवडे विशेष कार्य करवानुं छे वर्तमानमां, तो जेना आधारे जोर करवानुं छे ते पण सामे
कारणपणे वर्तमान पूरुं न होय तो कोना अवलंबने कार्य प्रगटे? ‘कारणशुद्धपर्याये’ आखा द्रव्यने
वर्तमानमां झीली राख्युं छे, ते वर्तमान निकटनुं कारण छे,–मोढा आगळ ते छे एटले तेनी मुख्यता ने
विभावोनी गौणता करतां कार्यनी सिद्धि थाय छे.
कार्यनी सिद्धि थया पछी पण तेनुं कारण भेगुं ज वर्ते छे, एवुं आ धु्रवकारण छे. चार अधूरा
ज्ञान तो पाछळ रही जाय छे–छूटी जाय छे, त्यां पण केवळज्ञानादि चतुष्टयनी साथे कारणशुद्धपर्याय तो
पंचमभावे वर्ती ज रही छे, सदाय साथे ने साथे ज रहेती एवी कारणशुद्धपर्याय ते ज नवा नवा
कार्यनुं कारण छे. जुओ, आ सदाय साथे रहेनार साथीदार. संयोगो, विभावो ने अधूरी पर्यायो तो
जीवनो साथ छोडी दे छे, तो जे साथ छोडी दे–एनो विश्वास शो? माटे अंतर्मुख थईने अखंड
कारणपणे सदाय साथे वर्तता एवा तारा स्वभावनो ज विश्वास कर...मोक्षमां जवा माटे तेनो ज साथ
ले. सिद्धपदमां पण ते सदाय साथे ने साथे ज रहेशे.
जुओ, आ द्रव्यानुयोगनो अति सूक्ष्म विषय. मोक्षनुं कारण जे निश्चयरत्नत्रय, तेनुं पण
मूळकारण अहीं बताव्युं छे; मोक्षमार्ग अने मोक्ष बंने तेना आधारे प्रगटे छे.
प्रश्न:– आप कारणशुद्धपर्यायनो घणोघणो महिमा करो छो, परंतु अमारे ते शुं उपयोगी?
उत्तर:– ते वर्तमान कारणरूप छे, तेथी जेने वर्तमान कार्य (सम्यग्दर्शनथी मांडीने मोक्ष कार्य)
प्रगट करवुं होय तेने ते उपयोगी छे, केम के ते कारणनो आश्रय करतां कार्य प्रगटी जाय छे. द्रव्यथी ते
कारणशुद्धपर्याय कांई जुदी नथी. द्रव्य त्रिकाळ एवुं ने एवुं पूरेपूरुं वर्तमानमां वर्ती रह्युं छे. अरे जीव!
तुं ज्यारे जो त्यारे वर्तमान कारणपणे पूरुं द्रव्य तारी पासे ज छे......ते तुं ज छे.....मात्र तारा नयननी
आळसे तें तारा कारणने जोयुं नथी तेथी ज तारुं कार्य अटक्युं छे–हवे तो अंतरमां नजर करीने आ
कारणने देख....आ कारणनो स्वीकार करीने तेनो आश्रय करतां तारुं निर्मळकार्य थई जशे. द्रव्यगुणनो
वर्तमान वर्ततो स्व–आकार ते कारणशुद्धपर्याय छे, बीजा कारणोनो आश्रय छोडीने, आ स्व–आकार
कारणना स्वीकारथी ज सम्यग्दर्शनादि कार्य थाय छे.
आ कारणशुद्धपर्याय अनादिअनंत एकरूपे प्रत्येक जीवने वर्ते छे.
(१) जगतमां संसारपर्याय सामान्यपणे अनादि अनंत छे, परंतु तेमांथी जे कोई जीव पोतानुं
भान करीने मोक्षमार्ग अने मोक्ष प्रगट करे तेने माटे संसार ‘अनादिसांत’ छे.
(२) मोक्षपर्याय पण जगतमां सामान्यपणे अनादिअनंत छे, परंतु प्रत्येक जीवनी अपेक्षाए
जे जीव ज्यारथी मोक्ष पाम्यो त्यारथी तेने माटे मोक्ष ‘सादि–अनंत’ छे.
(३) हवे जे कारणशुद्धपर्याय छे ते तो प्रत्येक जीवने, संसारमां के मोक्षमां, अनादिअनंत वर्ते
छे. पण तेनी खबर नवी पडी छे.....ज्यारे तेनी खबर पडे त्यारे तेनुं कार्य (सम्यग्दर्शनादि) प्रगटे छे.
जेम घरमां एक निधान तो पहेलेथी पड्युं होय, पण ज्यारे तेनुं भान थईने ते उपभोगमां आवे
त्यारे ते निधान काममां आव्युं कहेवाय. तेम कारणस्वभावरूप निधान तो आत्मामां अनादिअनंत छे,
पण तेनुं भान करीने श्रद्धा–ज्ञाने ज्यारे तेने पोतानुं कारण बनाव्युं त्यारे ते कारणनुं कारणपणुं सफळ
थयुं. “अहो! आ कारण तो मारामां पहेलेथी ज हतुं”–एवो ख्याल कार्य थयुं त्यारे आव्यो. ‘कारण’
नो ख्याल करनार कारण पोते नथी, ख्याल करनार तो