Atmadharma magazine - Ank 193
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८६ : १७ :
‘कार्य’ छे. कार्य एटले सम्यग्दर्शनादि करनारने ज तेना कारणनुं खरुं स्वरूप अने महिमा समजाय छे.
वाह, कारण–कार्यनी केवी संधि छे!
जुओ, आ कारण!
लोको कहे छे के तमे ‘कारण’ ने मानो छो के नहीं? –हा, भाई हा! कारणने मानीए छीए.
पण अमे तने पूछीए छीए के हे भाई! खरुं कारण तो कार्य आपवानी ताकातवाळुं होय, के ताकात
वगरनुं? जेनामां कार्य आपवानी ताकात न होय तेने खरुं कारण केम कहेवाय? निमित्तकारणनी अने
व्यवहार–कारणनी वात तो दूर रहो,–तेमनामां तो कार्य आपवानी ताकात छे ज नहि; अने निश्चय
मोक्षमार्गरूप जे कारण छे तेनामां पण मोक्ष आपवानी पूरी ताकात नथी, अंशे ताकात छे; एटले ते
मोक्षमार्ग पण मोक्षनुं खरुं कारण नथी. मोक्षनुं मूळ कारण आत्मानी पंचमभावपरिणति छे, अर्थात्
पंचमभावपरिणति सहित वर्ततो आत्मस्वभाव ज मोक्षनुं साक्षात् मूळ कारण छे, तेनामां ज मोक्ष
आपवानी ताकात छे जेनामां जे कार्य आपवानी ताकात होय तेने ज तेनुं खरुं कारण कहेवाय ने!
मोक्ष माटे बहारनुं कारण जुटाववानुं रहेतुं नथी, अंदरमां साक्षात् कारण पड्युं छे तेनुं अवलंबन
करतां बाह्यकारणो तो त्यां स्वयमेव होय ज छे.
‘कारणशुद्धपर्याय’ ना वर्णनद्वारा अहीं जे आत्मानुं ‘नीकट कारण’पणुं बताववुं छे ते माटेनुं
सामान्य द्रष्टांत आ प्रमाणे छे: जेम रेती अने लींडींपीपर बंनेमां रसगुण होवा छतां, चोसठपोरी तीखास
आपवा माटे नीकटनुं कारण लींडीपीपरमां छे. तेम कार्य प्रगटवा माटे आत्मामां त्रिकाळ सामर्थ्य होवा
छतां वर्तमान वर्ततुं तेनुं कारणपणुं (–जेने अहीं कारणशुद्धपर्याय तरीके वर्णव्युं छे) ते सीधुं–नीकटनुं
कारण छे. अने आ नीकटनुं कारण बधाय जीवोमां वर्ती रह्युं छे.–जेम नीकटना कारणनी अपेक्षाए
लींडीपीपर अने रेतीमां भेद पाडया, तेम जीवोमां बे भेद पडता नथी के एक जीवमां कारण नजीक, ने
बीजामां नहीं, ‘कारण’ तो बधा जीवोने नजीकमां ज (वर्तमानमां ज) छे.–एने कारण तरीके स्वीकारे
एटली ज कार्य प्रगटवानी वार छे. छे तो नजीक...पण अज्ञानना पडदाने लीधे दूर थई पड्युं छे!–ते
अज्ञाननो पडदो तोडीने सीधा कारण साथे संबंध करीने निर्मळकार्य प्रगट करवानी आ वात छे.
जुओ, टीकाकारे अद्भुत वात करी छे. आ टीकाकार मुनिराज पंचपरमेष्ठिपदमां भळेला छे
एटले तेओ पण ‘भगवान’ छे. पंच परमेष्ठीभगवंतोने नमस्कार करतां आ मुनिराजने पण
नमस्कार पहोंची जाय छे. तेओ कहे छे के प्रभो! तारा केवळज्ञाननुं कारण तारी नजीकमां तारी पासे ज
छे....ते पूजित छे, आदरणीय छे; तेनुं शरण लेतां सर्व मनोरथनी सिद्धि थई जाय छे.–कया मनोरथ?
के मोक्षनां: मुमुक्षुने मोक्ष सिवाय बीजा शेना मनोरथ होय?
त्रिकाळी द्रव्य–गुण ने कारणशुद्धपर्यायनुं जे स्वरूप कह्युं तेनी जे भावना करशे तेने
सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपद सुधीनां शुद्ध कार्यो थशे...अने पोताना सर्व मनोरथना स्थानभूत एवी
परमानंदस्वरूप मोक्षदशाने ते पामशे–आम संतोना आशीर्वादपूर्वक आ लेखमाळा समाप्त थाय छे.
[आ लेखमाळा पू. गुरुदेवना अनेक वखतना प्रवचनोमांथी महत्वनो सार तारवीने खूब ज
चीवटपूर्वक तैयारी करी छे; छतां आ विषय सूक्ष्म अने गहन होवाथी मारी अल्पबुद्धिने कारणे
लखाणना भावोमां क््यांय पण दोष रही गयो होय तो ज्ञानीजनो अने श्रुतदेवीमाता पासे नम्रतापूर्वक
क्षमा मांगुं छुं–ब्र हरिलाल जैन.
]
कारण–कार्यनी साक्षात् संधिस्वरूप एवा सर्वज्ञ परमात्माने नमस्कार हो.
कारण साथे संधिपूर्वक जेओ निजकार्यने साधी रह्या छे एवा साधक संतोने नमस्कार हो.
निजकार्यना हेतुभूत साक्षात् कारण दर्शावनार श्री सद्गुरुदेवने नमस्कार हो.
(नोंध:– आ ‘कारणशुद्धपर्याय’नी लेखमाळाना ११ लेखो आत्मधर्ममां अनुक्रमे अंक १३९, १४०, १४१,
१४२, प्रथम भादरवानो खास अंक, १४६, १८८, १८९, १९०, १९१, १९२ अने १९३ मां छपायेल छे.)