: २० : आत्मधर्म: १९३
संतोनी वाणी
शांति पमाडे छे
मलकापुरमां पू. श्री कानजीस्वामीनुं प्रवचन ता. ३०–३–प९
आ समयसार शास्त्र वंचाय छे. देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे, तेनामां सर्वज्ञ थवानी
ताकात छे. भगवान सर्वज्ञ थया पछी तेमनी वाणी सहज–ईच्छा वगर नीकळी, ने बार सभाना जीवो
पोतपोतानी भाषामां समज्या. भगवाननी वाणी सांभळीने कुंदकुंदाचार्यदेवे २००० वर्षे पूर्वे आ
शास्त्र रच्युं छे; ने १००० वर्ष पहेलां अमृतचंद्र आचार्ये तेनी टीका करी छे...अमृतचंद्राचार्यदेवनी
वाणीमां पण अमृत छे. आत्मानुं ज्ञानानंदस्वरूप शु्रं छे–ते आचार्यदेवे समजाव्युं छे. तेनी समजण
वगर जीवनुं संसारपरिभ्रमण मटतुं नथी. आत्मानी समजण वगर जीव अनादिकाळथी संसारमां
परिभ्रमण करीने दुःखी थई रह्यो छे. २९ वर्षनी वये श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के:–
जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःखअनंत,
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत,
जीवने बीजा कोईए (कर्मे के ईश्वरे) दुःख नथी आप्युं, पण पोते ज पोताना स्वरूपने भूल्यो
तेथी दुःख पाम्यो छे. आत्मानी ओळखाण सिवाय बीजुं बधुं जीव अनंतवार करी चूक््यो छे, पुण्य
करीने स्वर्गमांय अनंतवार जई आव्यो छे, पण आत्मानो धर्म लेशमात्र तेने थयो नथी.
पं. दौलतरामजी छहढाळमां कहे छे के:–
“मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो.”
आत्मानुं स्वरूप शुं छे–तेनी ओळखाण करीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या वगर जीव शुभरागरूप
व्रत–तप जे कांई करे ते बधुंय धर्मने माटे एकडा वगरना मींडानी जेम व्यर्थ छे शुभराग हो भले पण
धर्मने माटे ते किचिंत् पण कार्यकारी छे–ए मान्यता भ्रम छे–मिथ्या छे, ते ज संसारनुं मूळ कारण छे.
आत्मा देहथी भिन्न अने अंदरना विकारथी पण भिन्न शुद्ध चैतन्यमूर्ति छे–ते ज प्रधान छे. जेम
श्री फळमां उपरनां छालां टोपराथी जुदा छे, काचली पण टोपराथी जुदी छे, तेमज अंदरनी रातप पण
सफेद–मीठा टोपराथी जुदी छे; छालां, काचली अने रातप ए बधाथी भिन्न शुद्ध सफेद–मीठुं टोपरुं छे ते
ज श्रीफळमां सारभूत छे. तेम ज्ञान ने आनंदस्वरूप आत्मा आ शरीररूपी छालांथी जुदो छे, कर्मरूपी
काचलाथी पण जुदो छे ने अंदरमां रागरूपी रताशथी पण ते जुदो छे, ज्ञान अने आनंदना स्वादथी
भरेलो शुद्ध चैतन्यगोळो ज सारभूत वस्तु छे. तेनी ओळखाण–श्रद्धा करीने तेना अनुभवमां लीनता
ते मोक्षमार्ग छे.