Atmadharma magazine - Ank 193
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८६ : ३ :
बंधनथी छूटकारानो उपाय
बतावीने आचार्यदेव
शिष्यनी जिज्ञासा तृप्त करे छे
(श्री समयसार गा. ६९ थी ७२ उपरनां प्रवचनोनुं दोहन: गतांकथी चालु)
(वीर सं. २४८प श्रावण वद १३ थी भादरवा सुद ६)
अरे, चैतन्यने चूकीने चोराशीना अवतारमां जीव
एम ने एम चाल्यो जाय छे......क््यांय शरण! क््यांय
विसामो!–तो कहे छे के हा, आ ज्ञानस्वरूप आत्मामां ज
शरण अने विसामो छे.......पण विकारना वेगथी जराक
पाछुं वाळीने स्वभाव तरफ जुए त्यारेने!
विकारना वेगे चडेला प्राणीओने पडकार करीने
संतो पाछा वाळे छे के अरे जीवो! पाछा वळो.....पाछा
वळो! ए विकार तमारुं कार्य नथी......तमारुं कार्य तो
ज्ञान छे. विकार तरफना वेगे तमारी तृषा नहीं छीपे,
माटे तेनाथी पाछा वळो.....पाछा वळो.......ज्ञानमां
लीनताथी ज तमारी तृषा शांत थशे, माटे ज्ञान तरफ
आवो रे.....ज्ञान तरफ आवो!
धर्मात्मा जाणे छे के जीवन वखते, मरण वखते, के
परलोकमां, सर्वत्र मने मारो आत्मा ज शरण छे.......

६४. समयसारना आ कर्ताकर्मा–अधिकारनी शरूआतमां आचार्यदेवे एम समजाव्युं के जीवने
ज्यां सुधी आत्मा अने आस्रवोनुं भेदज्ञान नथी एटले के स्वभाव अने विभावने जुदा ओळखतो
नथी त्यां सुधी अज्ञानथी ते विकार साथे कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिमां वर्ते छे अने तेथी ज ते संसारमां रखडे
छे. ए वात सांभळीने जिज्ञासु