: १० : आत्मधर्म : १९४
जुओ, आ आमंत्रण! शांतरसमां निमग्न थवानुं आमंत्रण कोण न स्वीकारे? चैतन्यना
असंख्यप्रदेशे शांतरसनो समुद्र ऊछळी रह्यो छे ते आचार्यभगवाने देखाडयो...तेमां कोण डुबकी न
मारे? अहीं तो कहे छे के आखुं जगत आवीने आ शांतरसमां डुबकी मारो.
अहाहा! आवो भगवान आत्मानो शांतरस!–एम भगवान आत्मानो अद्भुत स्वभाव
देखीने धर्मात्मानो भाव ऊछळी गयो छे के अहो! आत्मानो आवो शांतरस बधाय जीवो पामो. बधा
जीवो आवो! धगधगता अंगारा जेवा विकारमांथी बहार नीकळीने आ शांतरसमां मग्न
थाओ...अत्यंत मग्न थाओ...जराय बाकी राखशो नहीं. आ शांतरस थोडो नथी पण आखा लोकमां
ऊछळी रह्यो छे...शांतरसनो अपार समुद्र भर्यो छे. तेमां लीन थवा माटे ढंढेरो पीटीने आखा जगतने
आमंत्रण छे.
पोताना भावमां जे रुच्युं तेनुं बीजाने पण आमंत्रण आपे छे. केटलाक श्रावको साधर्मीने
जमाडे छे, तेमां केटलाकना एवा भाव होय छे के कोई पण साधर्मी रही जवो न जोईए...कारण के
आटला बधामांथी कोई जीव एवो रूडो होय के भविष्यनो तीर्थंकर थनार होय, कोई केवळी थनार
होय, कोई अल्पकाळमां मुक्त थनार होय, तो एवा धर्मात्माने पेटे मारो कोळीयो जाय तो मारो धन्य
अवतार! कोण भविष्यमां तीर्थंकर थनार छे, कोण अल्पकाळमां मुक्तिमां जनार छे, तेनी भले खबर
न होय पण जमाडनारनो भाव एवो छे के अल्पकाळमां मुक्ति जनार कोई धर्मात्मा रही जवो न
जोईए.–एनो अर्थ एम छे के जमाडनारने धर्मनो अने मुक्तिनो प्रेम छे; जमाडनारना भाव जो
आत्मभावनापूर्वक यथार्थ होय तो पोताने अल्पकाळमां मुक्ति लेवाना भाव छे, तेथी बीजा
धर्मात्माओ प्रत्ये भाव ऊछळी जाय छे.
अहीं जेणे चैतन्यना शांतरसनो स्वाद चाख्यो छे एवा संत–धर्मात्मा आखा जगतने सागमटे
आमंत्रण आपे छे, आ शांतरसनो स्वाद चाख्या वगर कोई जीव रही जवो न जोईए, आखुं जगत
एकसाथे आवीने आ शांतरसने आस्वादो...तेमां निमग्न थाओ.–आमां खरेखर तो पोताने ज भगवान
आत्माना शांतरसमां डुबी जवानी तीव्रभावना उपडी छे. अहो! समयसारनी एकेक गाथामां
आचार्यदेवे अद्भुत रचना करी छे, अलौकिक भावो भर्या छे; शुं कहीए! जेने समजाय तेने खबर पडे.
देहरूपी खोळियामां प्रभुचैतन्य बालभावे सुतो छे प्रवचनमाता चैतन्यना हालरडां गाईने तेने
जगाडे छे. लौकिकमाता तो बाळकने ऊंघाडवा माटे हालरडां गाय छे; अने आ प्रवचनमाता तो, शरीर
अने रागने पोतानुं स्वरूप मानीने सुतेला बालजीवोने जगाडवा माटे हालरडां गाय छे: अरे जीव! तुं
जाग. जडथी ने रागथी जुदो पडीने तारा चैतन्यना शांतरसनुं पान कर...शांतरसमां निमग्न था.
जेम मोरलीना मधुर नादे सर्प झेरने भूली जाय छे ने मोरलीना नादमां एकाग्र थईने डोली
ऊठे छे; तेम आ समयसारनी वाणीरूप आचार्यदेवनी मधुर मोरलीना नादे कयो आत्मा न डोले?
चैतन्यना शांतरसना रणकार सांभळीने कया जीवनुं झेर(–मिथ्यात्व) न ऊतरी जाय? ने कोण न
जागे? बधाय जागे...बधाय डोले. अहा! आत्मानी अद्भुत वात सांभळतां असंख्यप्रदेशे
झणझणाटथी आत्मार्थी जीव डोली ऊठे छे ने चैतन्यना शांतरसमां मग्न थाय छे.
जुओ, आ चैतन्यराजाने प्रसन्न करवानुं भेटणुं! आवी अंर्तपरिणतिरूपी भेटणुं आप्या वगर
आत्मराजा कोई रीते रीझे एवो नथी. परिणतिने अंतरमां अकाग्र करतां चैतन्यना असंख्यप्रदेशे
शांतरसनो समुद्र उल्लसे छे, ते शांतरसमां निमग्न थवा माटे आखा जगतना जीवोने आमंत्रण छे:
बधा आवो..बधा आवो! मने आवो शांतरस प्रगटयो अने जगतनो कोई जीव रही जवो न जोईए.
समयसार–कलश ३२ उपरनां प्रवचनोमांथी.