Atmadharma magazine - Ank 194
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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मागशर : २४८६ : ११ :
बंधनथी छूटकारानो उपाय बतावीने
आचार्यदेव शिष्यनी जिज्ञासा तुप्त करे छे.
(श्री समयसार गा. ६९ थी ७२ ऊपरनां प्रवचनोनुं दोहन : गतांकथी चालु)
भाई! आवा टाणां मळ्‌या, हवे तो तारा स्वभावने लक्षमां ले.
परभावोना प्रेममां तें तारा आत्मानी दरकार कदी न करी. एक वार
स्वभावने जराक लक्षमां लेतां ज तने एम थशे के ‘अहो! आ ज मारे
आदरणीय छे...आ स्वभावनी दरकार विना अत्यारसुधीनो काळ में व्यर्थ
गुमाव्यो.’
न समजाय त्यांसुधी आ ज प्रयत्न कर्या करवो. ‘जीवनमां आ ज
एक करवा जेवुं छे’ एम बहुमानपूर्वक तेनो ज प्रयत्न कर्या करवो. आ
भेदज्ञान सिवाय बीजो तो कोई हितनो उपाय नथी. एकवार जेने भेदज्ञान
थयुं तेने ते मोक्षपद पमाडशे.
(८१) भेदज्ञान शुं ने अज्ञान शुं तेनी आ वात छे. ज्ञान अने रागने भिन्न ओळखीने
ज्ञानमां वर्तवुं ते भेदज्ञान छे; अने ज्ञान ने रागनी भिन्नता न ओळखतां तेमने एकमेक मानीने
रागमां वर्तवुं ते अज्ञान छे. भेदज्ञान तो मोक्षनुं मूळ छे, ने अज्ञान ते संसारनुं मूळ छे.
(८२) भेदज्ञानमां ज्ञानस्वरूपनो आदर छे, अज्ञानमां रागनो आदर छे. ज्ञानस्वरूप आत्मानो
ज्यां आदर छे त्यां पुण्य–पापनो आदर नथी. ज्ञानस्वरूपनो आदर छोडीने जे विकारनो आदर करे छे
ने विकारना कर्तापणे प्रवर्ते छे तेने ते विकारनी प्रवृत्तिमां ज्ञानरूप परिणमन नथी थतुं, पण अज्ञान
थाय छे. आ रीते अज्ञानमय एवी क्रोधादि प्रवृत्तिने अने ज्ञानस्वरूप आत्माने भिन्नता छे. आवी
भिन्नतानुं ज्यारे भान थाय छे त्यारे जीव ज्ञानी थयो थको क्रोधादिनी प्रवृत्तिथी जुदो पडीने ज्ञानमां ज
प्रवर्ते छे; अने त्यारे तेने बंधन थतुं नथी. आ रीते बंधनथी छूटवानी विधि भेदज्ञान ज छे.
(८३) ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने ज्यारे जीव सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप परिणम्यो,
त्यारे तेणे रत्नत्रयधर्मनी उपासना करी एटले तेने तो ‘पर्युषण’ ज छे. पर्युषण अर्थात् आराधना
अमुक ज दिवसोमां थाय ने बीजा दिवसोमां न थाय एम नथी. जे क्षणे जीव चैतन्यस्वभावनी सन्मुख
थईने तेनी उपासना–आराधना करे ते क्षण तेने माटे पर्युषण ज छे.
(८४) केटलाक लोको तो मूळ आराधनाने भूलीने पर्युषणना दिवसनी तकरारमां पडया छे.
अरे, जेनी उपासना करवानी छे तेनुं तो भान नथी तो पर्युषण कोनां?–आराधना कोनी? स्वभावने
बदले विभावनी आराधना (आदर) करे तो तो तेमां धर्मनी विराधना थाय छे. भले पर्युषणना
दिवसो होय,–पण जेने भेदज्ञान नथी, आत्मानो स्वभाव अने क्रोधादिनी भिन्नतानुं भान नथी ने
विकारना कर्तृत्वमां ज वर्ते छे, तेने तो ते दिवसो पण विराधनाना ज छे. पण लोको अंदरनी मूळ
वस्तुने भूलीने बहारना दिवसोने ज वळग्या!
(८प) अहीं भेदज्ञानधर्मनी अपूर्व वात आचार्यदेव समजावे छे. जेणे आवुं भेदज्ञान प्रगट
कर्युं ते जीव निरंतर चैतन्यस्वभावनी आराधनारूपे ज परिणमतो होवाथी तेने तो सदाय ‘पर्युषण’
ज छे,–धर्मनी उपासना तेना आत्मामां सदाय वर्त्या ज करे छे.