Atmadharma magazine - Ank 194
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : १९४
(८६) पहेलां वस्तुनी साची भूमिका समजवी जोईए. धर्मनी कई भूमिका छे, ने अधर्मनी
कई भूमिका छे? आत्माने क्रोधादि साथे एकत्व प्रवृत्तिरूप जे अज्ञान छे ते ज अधर्मनी भूमिका छे,–ते
ज संसारनुं मूळ छे. अने, आत्मा अने क्रोधादिनुं भेदज्ञान करवुं ते ज धर्मनी भूमिका छे,–ते
भेदज्ञानरूपी भूमिका वगर धर्मनुं झाड ऊगी शकतुं नथी.
(८७) अरे जीव! परभावोना प्रेममां तें तारा स्वभावनी दरकार कदी न करी...भाई! आवा
टाणां मळ्‌या...हवे तो तारा स्वभावने लक्षमां ले. एकवार स्वभावने जराक लक्षमां लेतां ज तने एम
थशे के अहो! आ ज मारे आदरणीय छे...आ स्वभावनी दरकार विना अत्यारसुधीनो काळ में व्यर्थ
गुमाव्यो...हवे तो मारे आ ज करवा जेवुं छे.
(८८) आत्मा ज्ञानस्वभावी छे. ज्ञानस्वभाव तरफना जेटला परिणाम छे ते ज्ञान ज छे; ते
क्रोधादिथी भिन्न छे. अने क्रोधादिना कर्तृत्ववाळा जे परिणाम छे ते क्रोधादि ज छे, ते ज्ञानथी भिन्न छे.–
आम बंनेनी भिन्नता छे. तेमांथी जे ज्ञानमां प्रवर्ते छे ते तो ज्ञानी छे, ने जे क्रोधादिमां प्रवर्ते छे ते
अज्ञानी छे. अज्ञानथी थयेली कोधादिनी प्रवृत्ति अनादिथी चाली आवे छे,–पण भेदज्ञानवडे
ज्ञानस्वभावमां प्रवृत्ति थतां ज, अज्ञानथी थयेली ते क्रोधादिनी प्रवृत्तिनो नाश थई जाय छे ने तेनो
नाश थतां बंधन पण छूटी जाय छे.
–आ रीते ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध सिद्ध थाय छे.ाा ७१ाा
(८९) जुओ, भेदज्ञान माटे तैयार थयेला शिष्यने आचार्यदेव आ वात समजावे छे. शिष्य
धीरो थईने जिज्ञासाथी आ वात समजे छे. आचार्यदेवे एम समजाव्युं के आत्मा अने आस्रवोना
भेदज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध थाय छे. ते सांभळीने जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के प्रभो! ज्ञानमात्रथी
ज बंधनो निरोध कई रीते थाय छे? ज्ञानना बहुमानपूर्वक शिष्य पूछे छे के अहो ! आ ज्ञान केवुं...के
जेनाथी बंधनो निरोध थई जाय छे! ज्ञानमात्रथी ज बंधनो निरोध थई जाय–ए कई रीते? तेना
उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे के–
अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो, एथी निवर्तन जीव करे. ७२
आस्रवोनुं अशुचिपणुं अने विपरीतपणुं तथा तेओ दुःखनां कारण छे एम जाणीने जीव
तेमनाथी निवृत्ति करे छे.
(९०) भगवान चैतन्यमूर्ति आत्मानो स्वभाव तो पवित्र छे–निर्मळ छे, ज्ञानमय छे, सुखथी
भरेलो छे, अने आस्रवो केवा छे?–तेओ तो अशुचिरूप छे–मलिन छे, ज्ञानथी विपरीत छे अने
दुःखमय छे.–आम बंनेना भिन्नभिन्न स्वभावने जे ज्ञान जाणे छे ते ज्ञान, आस्रवोथी पाछुं वळीने
आत्मस्वभाव तरफ झूकी जाय छे, दुःखना कारणरूप आस्रवोथी पाछुं वळीने स्वभावना सहजसुखमां
निमग्न थाय छे: आ रीते ते ज्ञान स्वयं आस्रवोथी निवर्तेलुं होवाथी, ज्ञानमात्रथी ज बंधन अटकी
जाय छे. आवा ज्ञान सिवाय बीजी कोई विधिथी बंधन अटकतुं नथी. ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां ज्ञान साथेना
सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र वगेरे तो तेमां भेगां ज छे; ‘ज्ञानमात्र’मां ज्ञानथी विरुद्ध भावोनो निषेध
छे पण ज्ञान साथेना अविरुद्धभावो (श्रद्धा–चारित्र वगेरे) नो निषेध नथी.
(९१) जुओ भाई! श्रवणमां–विचारमां–मननमां ने अंतरना मंथनमां चारे बाजुथी आ ज
वात नक्की करवी. न समजाय त्यांसुधी आ ज प्रयत्न कर्या करवो. ‘जीवनमां आ ज एक करवा जेवुं
छे’ एम बहुमानपूर्वक निरंतर तेनो ज प्रयत्न कर्या करवो. केम के आ सिवाय बीजो तो कोई हीतनो
उपाय नथी. जेने संसारना दुःखोथी आत्मानो छूटकारो करवो होय तेणे आ समज्ये ज छूटको छे.
आनुं बहुमान करनार पण बहु भाग्यशाळी छे...ने जे समजे ते तो न्याल थई जशे, केमके जे भेदज्ञान
थयुं ते सतत चालु रहीने तेने मोक्षपद पमाडशे. (चालु)