Atmadharma magazine - Ank 194
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : १९४
शरण!! आ घोर दुःखमां कोई सहायक!! कोई आ वेदनाथी छोडावनार!! हाय! आ असह्य वेदनाथी
कोई बचावनार!! ’ त्यां समकिती भाई कहे छे के अरे बंधु! कोई सहायक नथी, अंदरमां भगवान
चैतन्य ज आनंदथी भरेलो छे, तेनी भावना ज आ दुःखथी बचावनार छे, चैतन्य भावना विना
बीजुं कोई दुःखथी बचावनार नथी, बीजुं कोई सहायक नथी. आ देह ने आ प्रतिकूळ संयोगो ए
बधायथी पार चैतन्यस्वरूपी आत्मा छे.–आवा भेेदज्ञाननी भावना सिवाय जगतमां बीजुं कोई
दुःखथी बचावनार नथी, कोई शरण नथी. माटे भाई! एक वार संयोगने भूली जा...ने अंदर
चैतन्यतत्त्व आनंदस्वरूप छे तेनी सन्मुख जो. ते एक ज शरण छे. पूर्वे आत्मानी दरकार करी नहि ने
पाप करतां पाछुं वाळीने जोयुं नहि तेथी आ नरकमां अवतार थयो...हवें तो आ ज स्थितिमां हजारो
वर्षनुं आयुष्य पूरुं कर्ये ज छूटको...संयोग नहि फरे, तारुं लक्ष फेरवी नांख...संयोगथी आत्मा जुदो छे
तेना पर लक्ष कर.
संयोगमां तारुं दुःख नथी; तारा आनंदने भूलीने तें ज मोहथी दुःख ऊभुं कर्युं छे, माटे एक वार
संयोगने अने आत्माने भिन्न जाणीने, संयोगनी भावना छोड ने चैतन्यनी भावना कर. हुं तो
ज्ञानमूर्ति–आनंदमूर्ति छुं, आ संयोग अने आ दुःख बंनेथी मारो आत्मस्वभाव जुदो ज्ञान–आनंदनी
मूर्ति छे–आवा आत्मानो निर्णय करीने तेनी भावना करवी ते ज दुःखना नाशनो उपाय छे. चैतन्यनी
भावनामां दुःख कदी प्रवेशी शकतुं नथी. “ ज्यां दुःख कदी न प्रवेशी शकतुं त्यां निवास ज राखीए...”
चैतन्यस्वरूप आत्मानी भावनामां आनंदनुं वेदन छे, तेमां दुःखनो प्रवेश नथी...एवा चैतन्यमां एकाग्र
थईने निवास करवो ते ज दुःखथी छूटकारानो उपाय छे. कषायोथी संतप्त आत्माने पोताना शुद्धस्वरूपनुं
चिंतन ज तेनाथी छूटवानो उपाय छे. माटे ‘जिनेन्द्रबुद्धि’ श्री पूज्यपादस्वामी कहे छे के हे अंतरात्मा!
रागद्वेषादि विभावोनी उत्पत्ति अटकाववा माटे स्वस्थ थईने तारा शुद्ध आत्मानी भावना कर...तेना
चिंतनथी तारा विभावो क्षणमात्रमां शांत थई जशे. अज्ञानी जीवोने सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे पण
चैतन्यनी भावना करवी ए ज उपाय छे.
जेम धोम तडकाथी संतप्त प्राणीओ वृक्षनी शीतळ छायानो आश्रय ले छे, तेम आ संसारना घोर
संतापथी संतप्त जीवोने चिदानंदस्वभावनी शीतळ छाया ज शरणरूप छे, तेना आश्रये ज शांति थाय छे.
धर्मी जाणे छे के अहो! मारा चैतन्यवृक्षनी छाया एवी शांत–शीतळ छे के तेमां मोहसूर्यनां संतप्त
किरणो प्रवेशी शकता नथी. माटे मोहजनित विभावोना आतापथी बचवा हुं मारा शांत–शीतळ–उपशांत–
आनंद झरता चैतन्यतत्त्वनी छायामां ज जाउं छुं–चैतन्यस्वभावनी ज भावना करुं छुं.ाा ३९ाा
राग–द्वेषना विषयरूप जे शरीर तेनो प्रेम छोडीने, तेनाथी भिन्न एवा ज्ञायकशरीरी आत्मामां प्रेम
जोड, एम हवे उपदेश करे छे–
यत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम्।
बुद्ध्या तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति।।४०।।
जे शरीर, शिष्य वगेरेमां मुनिने जराक प्रेम होय तेनाथी भेदज्ञाननी बुद्धि वडे पोताना आत्माने
भिन्न करीने, ज्ञानानंदस्वरूप उत्तम कार्यमां एटले के शुद्ध जीवास्तिकायमां पोतानुं चित्त जोडे; आ रीते
शुद्धात्मस्वरूपमां चित्त जोडतां तेनाथी बाह्य एवा शरीरादि प्रत्येनो स्नेह नष्ट थई जाय छे. चैतन्यना
आनंदमां जेनुं चित्त लाग्युं तेनुं चित्त जगतना कोई पण विषयोमां लागतुं नथी. चैतन्यना अतीन्द्रिय
आनंदरस पासे जगतना बधाय रस तेने नीरस लागे छे; चैतन्यना उत्साह पासे देहादिनी क्रिया तरफनो
उत्साह ऊडी जाय छे. ज्यां सुधी आ जीवने पोताना निजानंदमय निराकुळ शांत उपवनमां क्रीडा करवानो
अवसर नथी मळतो त्यांसुधी ज ते मळ–मूत्र अने मांसथी भरेला एवा आ अपवित्र शरीरमां ने
ईन्द्रियविषयोमां आसक्त रहे छे;