Atmadharma magazine - Ank 194
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : १९४
शुद्धोपयोगी जीवनी परिणति
जे जीव शुद्धोपयोगी छे, अंतर्मुख थईने आत्मानुं अवलोकन करनार छे, तेनी परिणतिनुं
वर्णन करतां आचार्यदेव कहे छे के ते जीव माध्यस्थने भावीने एटले के राग–द्वेषरहित थईने, समस्त
कर्मथी अत्यंत भिन्न अने निर्मळ गुणोना धाम एवा आतमरामने ध्यावे छे. तेनी आ
निर्विकारपरिणति समस्त कर्मोने छेदी नांखवा समर्थ छे.
आवी परिणतिवाळो शुद्धोपयोगी जीव केवो छे?–‘राजहंस’ छे...सम्यग्दर्शनादि अनेक गुणरूपी
खीलेलां कमळोथी शोभतुं जे चैतन्यसरोवर तेमां ते राजहंस केलि करे छे...कर्मकलंकरूपी कादवने ते
राजहंस ग्रहण करतो नथी.
अहा! परिणति अंतरमां मग्न थई अने शुद्धभावरूपी अमृतनो समुद्र ज्यां ऊछळ्‌यो त्यां
पापकलंक तेमां केम रही शके? शुद्धोपयोगी राजहंसने जे अमृतआनंदनो सागर ऊछळ्‌यो छे ते समस्त
कर्मकलंकने धोई नांखे छे; अने तेने प्रगटेली ज्ञानज्योतिनो प्रकाश समस्त अंधकारने दूर करे छे.
जुओ, आ शुद्धोपयोगी जीवनी दशानुं वर्णन! एक कोर आनंदनो समुद्र उल्लस्यो छे...एक कोर
ज्ञान–सूर्य झळहळी रह्यो छे...ने एककोर चैतन्यसरोवरमां सम्यग्दर्शन वगेरे कमळो खीली ऊठयां छे!–
आ बधुं धर्मीनी परिणतिमां समाय छे. तेनी परिणति शांत–शांत थई गई छे.–आवी परिणति ते
मुमुक्षुनो मार्ग छे...मुमुक्षु जीवो शुद्धोपयोगवडे आवी परिणति करी करीने ज मोक्षमां गया
छे...ने...मुनिराज कहे छे के हुं पण ए ज मुमुक्षुमार्गे जाउं छुं. खरेखर मुनिना अंतरमां आवी परिणति
वर्ती ज रही छे...आवी परिणतिवडे तेओ मोक्षना मार्गे चाल्या जाय छे.
अरे, आ शरीर तो भवनी मूर्ति छे, अस्थिर छे. आ पुद्गलमय शरीर मारुं नथी, हुं तो
ज्ञानशरीरी छुं, ज्ञान ज मारुं शरीर छे, ते स्थिर छे. तेथी हुं पुद्गलमय देहनो आश्रय छोडीने, मोक्षने
साधवा माटे मारा ज्ञानशरीरनो आश्रय करुं छुं.–आम धर्मी जीव पोतानी परिणतिने ज्ञानस्वभावमां
एकाग्र करीने आतमरामने ध्यावे छे...ने परम आनंदनो अनुभव करता करता मोक्षने साधीने
अशरीरी थाय छे.
–आ रीते अंतर्मुख थईने, शुभ–अशुभथी रहित एवा शुद्ध चैतन्यनी भावना ते
अनादिना भवरोगने मटाडवानुं उत्तम औषध छे. “औषध विचार...ध्यान”–शुद्धचैतन्यस्वरूपने
विचार–मननवडे जाणीने, तेनां ध्यानमां एकाग्र थतां अनादिनो भवरोग क्षणमात्रमां दूर थई
जाय छे. चैतन्यना ध्यानरूपी आ अमोघ औषध कदी निष्फळ जतुं नथी. माटे, श्री गुरुनां वचन
पामीने हे जीव! तुं आवी शुद्धपरिणतिवाळो था...शुद्ध परिणतिवाळो थईने चैतन्यना ध्यानवडे
शुद्धोपयोगी था. तारा शुद्धोपयोगमां परम चैतन्यतत्त्व आनंदसहित स्फूरायमान थशे...ने ते तने
मुक्ति आपशे. मुनिओना मनमां पण आ शुद्धतत्त्व वसेलुं छे...विषयसुखमां रत जीवो भले आ
सुखसमुद्रने न देखे...पण धर्मात्मा तो विषयोथी विमुख थईने, अंतर परिणतिवडे परम
सुखसमुद्रमां मग्न थाय छे. जगतना कोई पण विषयमां जे सुखनो अंश पण नथी एवुं परमसुख
शुद्धोपयोगी जीवो चैतन्यना ध्यानमां अनुभवे छे...परमसुखना साक्षात् समुद्रमां तेमनी परिणति
लीन थाय छे.
अहा, जुओ तो खरा...आ धर्मात्मानी परिणति! आने ओळखे तोय अंतरमां भेदज्ञान थई
जाय छे तेवुं छे. आवी शुद्धपरिणतिवाळो आत्मा जयवंत वर्ते छे...तेने हुं प्रतिदिन भावुं छुं.
(–नियमसार गा. १११ तथा तेनी उपरना ९ श्लोकना प्रवचनमांथी.)