वगेरे सभाजनोने हर्ष थयो...आवा महापवित्र कुंदकुंद आचार्यदेवे भगवाननी वाणी सांभळीने
आ समयसारशास्त्र रच्युं छे, तेमां आत्मानुं ज्ञान केम थाय–ते वात मुख्यपणे समजावी छे.
अनंतवार गयो. अज्ञानीपणे व्रतादि करीने स्वर्गमांय अनंतवार गयो पण तेनुं संसारभ्रमण
न टळ्युं.
पै निजआतमज्ञान विन सुख लेश न पायो।
अनंतवार भण्यो, परंतु अंतरमां चैतन्यविद्या कदी भण्यो नथी. रागथी भिन्न
चिदानंदस्वरूप आत्मा छे. आवुं ज्यां सम्यग्भेदज्ञान थाय छे त्यां ते क्षणे ज ज्ञान
रागादिथी विरति पामे छे...भेदज्ञान थतांवेंत ज ज्ञान अंर्तस्वभावमां वळी जाय छे ने
रागथी ते छूटुं पडी जाय छे. आवुं भेदज्ञान ते अपूर्व चीज छे; एक क्षणनुं भेदज्ञान अनंत
संसारनो नाश करी नांखे छे...विदेहक्षेत्रमां सीमंधर परमात्मा बिराजे छे, तेमनी सभामां
मोटामोटा राजकुमारो तेमज आठ–आठ वर्षनां बाळको, ने तिर्यंचो पण आवुं अपूर्व
भेदज्ञान प्रगट करीने सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा थाय छे.
छे, ने हवे अमारा भवनो अंत नजीक आव्यो छे.
वास्तविक स्वरूप तो पवित्र चैतन्यरूप छे. आवा भेदज्ञाननी क्रियावडे सिद्धपद सधाय छे.
सिद्धपद न थाय ने राग होय त्यां सुधी धर्मात्माने पूजा–प्रतिष्ठा–जात्रा–भक्ति वगेरेनो भाव
आवे छे, पण धर्मी ते भावने पुण्यबंधनुं कारण समजे छे. पुण्यबंधना कारणरूप रागभाव,
अने मोक्षना साधनरूप आत्मज्ञान–ए बंने भावो साधकने एक साथे रही शके छे; एक साथे
होवा छतां ते बंने भावो एक नथी पण भिन्न भिन्न जातना छे. जेम, विपरीत ज्ञान अने
सम्यग्ज्ञान–ए बंने एक साथे रही शकता नथी, परंतु राग अने ज्ञाननुं तेम नथी, अर्थात्
अविरति संबंधी राग तेमज आत्मानुं ज्ञान–ए तो बंने साथे पण रही शके छे. परंतु त्यां साधक
ते रागनो ज्ञाता छे. रागनुं कर्तापणुं अने ज्ञातापणुं ए बंने एक साथे रही शकता नथी. जे जीव
ज्ञाता छे ते जीव रागादि विकारभावने पोतानुं कर्तव्य मानीने कर्ता थतो नथी, पण पोताना
ज्ञानने, रागथी भिन्न जाणतो थको ज्ञाता ज रहे छे. अज्ञानी जीव रागमां एकत्वपणे वर्ततो थको
तेनो कर्ता थाय छे, ते ज्ञाता रही शकतो नथी; केमके–