Atmadharma magazine - Ank 195
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 10 of 21

background image
पोष: २४८६ : ९ :
ए ज वीतरागनी मोटी विराधना अने मोटुं पाप छे, एनो ख्याल जगतना जीवोने नथी आवतो!
१०३ आ वात सांभळतां कोईने झणझणाट ऊठे, परंतु भाई! सत्य तो आज वात छे, आ
समज्या विना भवनो अंत आववानो नथी. अने खरेखर तो आ वात सांभळतां
आत्मार्थी जीवने अंदरथी स्वभावनो झणझणाट ऊठवो जोईए के अहो! मारो आवो
स्वभाव!–आ स्वभाव ज मारे साधवा जेवो छे. अत्यारसुधी मारो आवो स्वभाव मारा
लक्षमां नहोतो आव्यो, हवे हुं मारा आवा स्वभावने सर्व प्रयत्नथी जरूर प्राप्त करीश.–आ
रीते स्वभावनी प्राप्ति माटे जेना अंतरमां झणझणाट जागे ते जीव तेने प्राप्त करीने ज जंपे!
१०४ अहीं आचार्यदेव कहे छे के भेदज्ञान थतां ज्ञानमां क्रोधादि मालूम पडता नथी. जुओ, भेदज्ञान
थतां ते धर्मीने पोताने ज निःसंदेह खबर पडे छे के मारुं ज्ञान ज्ञानरूपे ज छे, मारुं ज्ञान
क्रोधादिरूप थतुं नथी. ‘अत्यारे मारो आत्मा ज्ञानरूपे परिणमतो हशे के रागरूपे’–एम ते धर्मीने
शंका नथी पडती, परंतु निःसंदेहपणे पोतानो आत्मा ज्ञानरूपे थतो ज प्रतिभासे छे, रागादिरूपे
थतो जरा पण प्रतिभासतो नथी. ज्यां आवी निःसंदेहता न होय त्यां भेदज्ञान ज नथी.
भेदज्ञान थाय अने ‘आत्मानुं परिणमन रागथी जुदुं पडीने ज्ञानरूप थयुं के नहीं’ तेनी पोताने
खबर न पडे ने बीजाने पूछवा जवुं पडे–एम बनतुं नथी, भेदज्ञान थतां पोताना स्वभाव–
परिणमननी पोताने निःशंक खबर पडे छे.
१०प अरे जीव! एक वार तारा स्वभावने लक्षमां लईने निःसन्देह था, निःशंक था. स्वभावनी
निःशंकताना जोरे केवळज्ञानादि भावो फूटशे. आचार्यभगवाने घणा घणा स्पष्टीकरणथी
चिदानंदस्वभाव रागथी भिन्न बतावीने निःशंकता करावी छे. आ समयसारशास्त्रनी एवा
बळवान योगे रचना थई छे के पात्र जीव झट दईने समजी जाय तेवुं छे, भव्य जीवो उपर
अपार करुणा करीने संतोए आत्मस्वरूप बताव्युं छे. अंतरमां जराक ऊंडे ऊतरीने रहस्य
समजे तेने आ समयसारना महिमानी खबर पडे. अहो! आ समयसार भरतक्षेत्रनो
भगवान छे...आ समयसारमां मोक्षनां वेणला वाया छे.
१०६ अनादिथी जीव शुभाशुभरागने आधीन थई रह्यो छे, तेने अहीं स्वाधीन आत्मस्वरूप
ओळखाव्युं छे. अरे जीव! हुं परनुं कार्य करुं ने पर मारुं कार्य करे–एवी पराधीनता वगरनो
एक पण दिवस खरो?–एक क्षण पण खरी? एक दिवस तो पराधीनता वगरनो लाव!
अरे, एक क्षण तो पर साथेनो संबंध तोडीने तारा स्वभाव साथे संबंध जोडीने स्वाधीन
था.–आवी स्वाधीनताथी तारा जीवनमां अतीन्द्रिय आनंदनी उषा ऊगशे. एना वगर कदी
पण सुख के शांति थाय तेम नथी. आवी स्वाधीनतानी एक क्षण तो लाव!
१०७ ज्ञाननो स्वभाव तो शांत–सुखरूप छे, अने रागादिनो स्वभाव अशांत–दुःखरूप छे. रागथी
भिन्न ज्ञाननी ‘प्रसिद्धिवडे आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे. बाळगोपाळ बधा ज्ञानथी समजी शके
छे तेथी ज्ञानलक्षणवडे आत्माने ओळखाव्यो छे. आत्मा तरफ वळेलुं ‘ज्ञान’ तेमां मोक्षमार्ग
समाई जाय छे.
१०८ ज्ञानमात्रथी ज अबंधपणुं कई रीते छे ते समजावतां अहीं आचार्यदेव कहे छे के, क्रोधादि आस्रवो
अशुची, विपरीत अने दुःखनां कारणो छे–एवुं ज्ञान थतां ज आत्मा तेमनाथी पाछो वळी जाय
छे; अने आत्मस्वभाव पवित्र–ज्ञान–स्वभावी, सुखथी भरेलो छे–एम जाणीने ते स्वभाव तरफ
झूकी जाय छे. आ रीते ज्ञानमात्रथी ज जीवने बंधनो निरोध थाय छे, –बीजाथी नहीं.
१०९ अशुभभाव तो मलिन छे अने शुभभाव पण मलिन छे. जुओ, शुभने पण मलिन कोण
कहे?–जेणे शुभाशुभरागथी रहित महानिर्मळ आत्मस्वभावनो अनुभव कर्यो होय,
स्वभावथी वीतरागी शांतिनो आस्वाद लीधो होय, ते जीव